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________________ सूत्र १०३-१०६ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १५३ विजयदारस्स णामहेउ विजयद्वार के नाम का हेतु१०३. ५० से केणढणं भंते ! एवं बुच्चइ ? 'विजए णं वारे, विजए १०३. प्र. हे भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि णं दारे !' यह विजयद्वार है, यह विजयद्वार है ? उ० गोयमा ! विजए णं दारे विजए णाम देवे महिड्ढीए उ० हे गौतम ! विजयद्वार को विजयद्वार कहने का कारण -जाव-महाणुभावे पलिओवमठिईए परिवसइ। यह है कि वहाँ ऋद्धि सम्पन्न यावत् महातेजस्वी और पल्योपम की स्थिति वाला विजय नामक देव रहता है। से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं, चउण्हं अग्ग- वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार महिसोणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्ताह अणियाणं, अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकों-सेनाओं, सात सत्तण्हं अणियाहिवईणं, सोलसहं आयरक्खदेवसाहस्सोणं, अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा विजयद्वार विजयस्स णं दारस्स, विजयाए रायहाणीए, अण्णेसि च बहूणं की विजया नामक राजधानी तथा उस विजया नामक राजधानी विजयाए रायहाणीए वत्थश्वगाणं देवाणं देवीण य आहेबच्चं में निवास करने वाले और दूसरे बहुत से देव-देवियों का आधिपत्य -जाव-दिव्वाई भोगभोगाई भुञ्जमाणे विहरइ। करते हुए यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विचरण करते हैं । से देणढणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"विजए दारे, विजए इस कारण गौतम ! विजयद्वार को विजयद्वार कहते हैं । दारे।" -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३४ विजयदारस्स सासयत्तं विजयद्वार की शाश्वतता१०४. 'अत्तरं च णं गोयमा ! विजयस्स णं वारस्स सासए णाम- १०४. अथवा हे गौतम ! विजयद्वार यह शाश्वत नाम कहा गया धज्जे पण्णत्ते-जण्ण कयाइ थि–जाव-णिच्चे विजए है, 'यह विजयद्वार कभी नहीं था' ऐसा नहीं है, यावत् नित्य है। _ --जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १३४ विजयारायहाणीए ठाणं पमाणं य विजया राजधानी का स्थान और प्रमाण१०५.५० कहिणं भंते ! विजयस्स देवस्स विजया णाभं रायहाणी १०५. प्र०-हे भगवन् ! विजयदेव की विजया नामक राजधानी पण्णत्ता? किस स्थान पर कही गई है ? अर्थात् कहाँ पर स्थित है ? उ० गोयमा! विजयस्स णं दारस्स पुरथिमेणं तिरियमसंखेज्जे उ०-हे गौतम ! विजयद्वार की पूर्व दिशा में तिर्यग् दीव-समुह वीइवत्ता, अण्णमि जंबुद्दीवे दीवे बारस- असंख्यात द्वीप समुद्रों का अतिक्रमण करने के बाद प्राप्त अन्य जोयणसहस्साई ओगाहित्ता-एत्थ णं बिजयस्स देवस्स जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन जाने पर विजय देव की विजया विजया णाम रायहाणी पण्णत्ता-बारसजोयणसहस्साई नामक राजधानी कही गई है-यह विजया राजधानी लम्बाईआयाम-विवखंभेणं, सत्ततीसजोयणसहस्साई नव य अड- चौड़ाई में बारह हजार योजन की है, तथा इसका परिक्षेप कुछ याले जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। अधिक सैतीस हजार नौ सौ अड़तालीस योजन प्रमाण कहा -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १३५ गया है। विजयारायहाणीए पागारस्स पमाणं विजया राजधानी के प्राकार का प्रमाण१०६. सा गं एगेण पागारेणं सम्बओ समंता संपरिक्खित्ता। १०६. यह राजधानी एक प्राकार-कोट से चारों ओर घिरी दारे। से णं पागारे सत्ततीसं जोयणाई अद्धजोयणं च उड्ढे यह प्राकार ऊँचाई में साढ़े सैतीस योजन ऊँचा है, मूल में उच्चत्तणं, मुले अद्धतेरसजोयणाई विक्खंभेण, मझेऽत्थ साढ़े बारह योजन का विस्तार वाला, मध्य में एक कोस सहित सबकोसाई छ जोयणाई विभेणं, उपि तिणि सद्धकोसाइं छह योजन का विस्तार वाला और ऊपर साढ़े तीन योजन का जोयणाई विक्खभेण, मूले विस्थिपणे, मज्झे संखित्त, उपि विस्तार वाला है। इस प्रकार मुल में विस्तृत; मध्य में संक्षिप्ततणए, बाहिं बटू, अंतो चउरसे, गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्व- संकुचित और ऊपरी भाग में पतला होता गया है. बाह्य भाग में कणगामए अच्छे-जाव–पडिरूवे । वृत्ताकार और भीतरी भाग में समचतुष्क-चौरस है, आकार में -जीवा०प०३, उ० १, सु० १३५ गोपुच्छ के संस्थान वाला है, और सर्वात्मना स्वर्ण का बना हुआ स्वच्छ यावत् प्रतिरूप है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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