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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
सूत्र ६१-१०२
६१. तेसि णं भोमाणं बहुभज्झदेसभाए जे से पंचमे मोमे, तस्स ६१. इन भौमों के मध्यातिमध्य प्रदेश में स्थित जो पाँचवाँ भौम
णं भोमस्स बहुमज्झदेसभाए-एत्थ णं एगे महं सीहासणे है, उस भौम के भी बीचोंबीच एक विशाल सिंहासन कहा गया पण्णत्ते। सीहासण वण्णओ विजये दूसे-जाव-अंकुसे- है, सिंहासन का वर्णन विजय दूष्य का-यावत्-अंकुश का-यावत्जाव-दामा चिट्ठन्ति ।
मालाओं का वर्णन (पहले किये गये इन इन के वर्णन के समान
यहाँ भी कर लेना चाहिये ।) ६२. तस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरथिमेणं- ६२. इस सिंहासन के वायव्यकोण में उत्तर दिशा में और ईशान
एत्थ णं विजयस्स देवस्स चउण्हं सामाणियसहस्साणं चत्तारि कोण में विजयदेव के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ।
भद्रासन कहे गये हैं। ६३. तस्स णं सोहासणस्स पुरच्छिमेणं-एत्थ णं विजयस्स देवस्स ६३. इस सिंहासन के पूर्व दिशा में विजयदेव की सपरिवार चार
चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चत्तारि भद्दासणा पण्णत्ता। अग्रमहिषियों के चार भद्रासन कहे गये हैं। ६४. तस्स णं सीहासणस्स दाहिण-पुरत्थिमेणं-एत्थ णं विजयस्स ६४. इस सिंहासन के आग्नेय कोण में विजयदेव की आभ्यन्तर
देवस्स अभितरियाए परिसाए अट्ठण्हं देवसाहस्सीणं, अट्ठण्हं परिषदा के आठ हजार देवों के आठ हजार भद्रासन कहे गये हैं।
भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। ६५. तस्स णं सोहासणस्स दाहिगेणं-एत्थ णं विजयस्स देवस्स ६५. इस सिंहासन की दक्षिण दिशा में विजयदेव की मध्यमा
मज्झिमियाए परिसाए दसहं देवसाहस्सीणं दस भद्दासण परिषदा के दस हजार देवों के दस हजार भद्रासन कहे गये हैं।
साहस्सीओ पण्णत्ताओ। ६६. तस्स णं सोहासणस्स दाहिण-पच्चत्थिमेणं-एत्थ णं विजयस्स ६६. इस सिंहासन की दक्षिण-पश्चिम दिशा में विजयदेव की
देवस्स बाहिरियाए परिसाए बारसण्हं देवसाहस्सीणं बारस बाह्य परिषदा के बारह हजार देवों के बारह हजार भद्रासन कहे भद्दासण साहस्सीओ पण्णत्ताओ।
गये हैं। ६७. तस्स णं सीहासणस्स पच्चत्थिमेणं-एत्थ णं विजयस्स ६७. इस सिंहासन के पश्चिम दिग्भाग में विजयदेव के सात अनीका
देवस्स सत्तण्हं अणियाहिवईणं सत्त भद्दासणा पण्णत्ता। धिपतियों-सेनापतियों के सात भद्रासन कहे गये हैं। १८. तस्स णं सोहासणस्स पुरथिमेणं दाहिणणं पच्चत्थिमेणं ६८. इस सिंहासन की पूर्व-दक्षिण-पश्चिम और उत्तर दिशा में
उत्तरेणं-एत्थ णं विजस्स देवस्स सोलस आयरक्खदेवसाह- विजयदेव के सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के सोलह हजार स्सीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- भद्रासन कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं--पूर्व दिशा में चार हजार, पुरस्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ, एवं चउसु वि-जाव- इसी प्रकार चारों दिशाओं में यावत् उत्तरदिशा में चार हजार उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ।
भद्रासन कहे गये हैं। अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पण्णत्ता ।
अवशेष भोमों में भी प्रत्येक भद्रासन कहे गये हैं। -जीवा०प०३, उ०१, सु० १३२ विजयदारस्स उवरिमागारा
विजयद्वार के ऊपर का आकार६६. विजयस्स णं दारस्स उवरिमागारा सोलसविहेहि रयणेहि ६६. विजयद्वार के ऊपर का आकार सोलह प्रकार के रत्नों से
उवसोभिया, तं जहा–रयणेहिं वइरेहि वेरुलिएहिं-जाव- सुशोभित है, यथा-वज्ररत्न वैडूर्य रत्न यावत् रिष्ट रत्न ।
रिट्ठहिं। १००. विजयस्स णं दारस्स उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा पण्णता, तं १००. विजयद्वार के ऊपर अनेक आठ-आठ मंगल द्रव्य कहे गये
जहा–सिरिवच्छ-जाव- दप्पणा, सव्वरयणामया अच्छा हैं यथा-स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण, ये सभी मंगल द्रव्य -जाव—पडिरूवा।
सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ, निर्मल यावत् प्रतिरूप है। १०१. विजयरस णं दारस्स उपि बहवे कण्हचामरझया-जाव- १०१. विजयद्वार के ऊपर अनेक कृष्ण चामरों की ध्वजाय हैं सबरयणामया अच्छा-जाव–पडिरूवा ।
यावत् जो सर्वात्मना रत्नमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप है । १०२. विजयस्स ण दारस्स उप्पि बहवे छत्तातिछत्ता तहेव। १०२. विजयद्वार के ऊपर अनेक छत्रातिछत्र हैं, जिनका वर्णन
-जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३३ पूर्व में किये छत्रातिछत्रों के वर्णन के अनुसार जानना चाहिये ।