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________________ सूत्र ८६-६० तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १५१ दद्दर मलय सुगंधी, सव्वोउय सुरभिसीयलच्छाया, मंगलभत्ति- उत्पन्न होने वाले पुष्पों की सुरभि से परिपुर्ण जिनकी शीतल चित्ता, चंदागारोवमा वट्टा। छाया है, जिन पर अष्टमंगल द्रव्यों के चित्र बने हुए हैं, चन्द्रमा के आकार जैसा इनका गोल आकार है। ८७. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो चामराओ पण्णताओ। ८७. इन तोरणों के आगे दो-दो चामर कहे गए हैं। ताओ गं चामराओ (चंदप्पभवइ रवेरुलिय-गाणामणि-रयण- इन चामरों के (चन्द्रकान्त मणि, वज्ररत्न, वैडूर्यमणि आदि खचिय दंडाओ) णाणामणि-कणगरयणविमलमहरिहतवणिज्ज- अनेक प्रकार के मणिरत्नों से खचित दंड है) अथवा ये चामर ज्जलविचित्तदंडाओ, चिल्लिआओ संखककुन्दे-नगरयअमयम- अनेक प्रकार के मणियों, कनक, और रत्नों से जटिल एवं विमल दियफेणपुजसण्णिकासाओ सुहमरयय दीहवालाओ, सम्व. महामूल्यवान्, तपनीय स्वर्ण से निर्मित उज्ज्वल विचित्र दंड रयणाममाओ अच्छाओ-जाव -पडिरूबाओ। वाले हैं, तथा शंख, अंकरत्न, कुन्दपुष्प, जलकण, मथित अमृत के फेन पुज की दैदीप्यमान शुभ्रता वाले हैं, सूक्ष्म एवं रजत के समान धवल लम्बे वालों से युक्त हैं, सर्वात्मना रत्नमय स्वच्छ -यावत्-प्रतिरूप है। ८८. तेसि णं तोरणागं पुरओ दो दो तिल्लसमुग्गा, कोट्ठसमुग्गा, ८७. इन तोरणों के आगे दो-दो तैलसमुद्गक कोष्ठ समुद्गक, पत्तसमुग्गा, चोयसमुग्गा, तयरसमुग्गा, एलासमुग्गा, हरियाल- पत्र समुद्गक, चोय समुद्गक, तगर समुद्गक, इलायची समुद्गक, समुग्गा, हिंगुलयसमुग्गा; मणोसिलासमुग्गा, अंजणसमुग्गा; हरताल समुद्गक, हिंगुलुक समुद्गक, मैनसिल समुद्गक, अंजनसवरयणामया अच्छा-जाव–पडिरूवा।। समुद्गक रखे हैं, ये सभी समुद्गक-वस्तु को रखने के पात्र-जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३१ सर्वात्मना रत्नों से बने हुए, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । विजयदारे असीयं के उसहस्स विजयद्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजायें८६. विजये णं दारे अट्ठसयंचक्कझयाणं, अट्ठसयं मिगझयाणं, अट्ठ- ८६. उस विजपद्वार के ऊपर चक्र के चिह्न से युक्त एक सौ आठ सयं गरुलझयाणं, अट्ठसयं विगझयाणं, अट्ठसयं रुरुझयाणं, अg- ध्वजाएँ, एक सौ आठ मृग के चिन्ह से अंकित ध्वजार, एक सौ आठ सयं छत्त झयाणं, अट्टसयं पिच्छझयाण, अट्ठसयं सउणिझयाणं, गरुड के चिह्न से अंकित ध्वजायें, एक सौ आठ वृक के चिह्न से अट्ठसयं सीहझयाणं, अट्ठसयं उसमझयाणं, अट्ठसयं सेवाणं अंकित ध्वजायें, एक सौ आठ रुरु के चिह्न से अंकित ध्वजायें, चउविसाण वरनागकेऊणं एवामेव सपुरवावरेणं विजयदारे य एक सौ आठ छत्र के चिह्न से अंकित ध्वजाये, एक सौ आठ मयूर असीयं केउसहस्सं भवतित्तिमक्खायं । पिच्छ के चिह्न से अंकित ध्वजायें, एक सौ आठ शकुनिपक्षी के -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३२ चिह्न से अंकित ध्वजायें, एक सौ आठ सिंह के चिह्न से अंकित ध्वजायें, एक सौ आठ वृषभ के चिह्न से अंकित ध्वजायें, एक सौ आठ श्रेष्ठ नाग के केतुभूत श्वेत चार दंतों के आकार वाले चिह्न से अंकित ध्वजायें फहरा रही है, इस प्रकार सब मिलाकर उस विजयद्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजाओं का परिमाण कहा गया है। विजयदारे नवभोमा विजयद्वार के आगे नव भौम६०. विजये णं दारे नवभोमा पण्णता,' तेसि गं भोमा गं अंतो ६०. विजयद्वार के आगे नौ भौम-विशिष्ट स्थान कहे गए हैं, उन बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता-जाव-- मणीणं फासो। स्थानों के अन्दर का भूमि भाग अत्यन्त समतल और रमणीय तेसि णं भोमाणं उप्पि उल्लोया पउमलया-जाव-सामलया कहा गया है, यावत्- मणियों के स्पर्श के तुल्य है, उन भत्तिचित्ता-जाव-सव्व तवणिज्जमया अच्छा-जाव- भौमों के ऊपर के उल्लोको-आगासी में पद्मलता यावत् श्यामपडिरूवा। लता के चित्राम चित्रित है-यावत्-ये सभी भौम तपनीय स्वर्णमय, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप हैं। १ सम० ६, सु०६।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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