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________________ .३४० लोक-प्राप्ति तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन सूत्र ६२६-६३२ ६२६. ५०-लवणे गं भंते ! समुद्दे कि समचक्कवालसंठिते? ६२६. प्र.-भगवन् ! लवणसमुद्र क्या समचक्राकार संस्थान से विसमचक्कवालसंठिते ? स्थित है ? या विषमचक्राकार संस्थान से स्थित है ? उ०-गोयमा ! समचक्कवालसंठिए, नो विसमचक्कवाल- उ०-गौतम ! समचक्राकार-संस्थान से स्थित है, विषमसंठिए। चक्राकार-संस्थान से स्थित नहीं है। ६३०. ५०-लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं, ६३०. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र की चक्राकार चौड़ाई कितनी केवतियं परिक्खेवेणं पण्णते ? कही गई है और परिधि कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसतसहस्साई उ०-गौतम लवणसमुद्र की चक्राकार चौड़ाई दो लाख योजन चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते,' की कही गई। पण्णरसजोयणसयसहस्साई एगासीइसहस्साई सयमेगोण- पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनतालीस योजन से चत्तालीसे किंचिविसेसाहिए लवणोदधिणो चक्कवाल- कुछ अधिक की लवणसमुद्र की चक्रवाल-परिधि कही गई है। परिक्खेवेणं पण्णत्ते ।। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५४ लवणसमुदस्स पउमवरवेइयाए वणसंडरस य पमाणं- लवणसमुद्र की पद्मवरवेदिका का तथा वनखण्ड का प्रमाण६३१. से णं एक्काए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सम्बओ ६३१. वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर समता संपरिक्खित्ते चिट्टइ । दोण्हवि वण्णओ। से घिरा हुआ है। दोनों (पद्मवरवेदिका और वनखण्ड) का वर्णन कहना चाहिए। ६३२. साणं पउमवरवेइया अद्धजोयणं उड्ढे उच्चत्तेणं', पंचधणु- ६३२. वह पद्मवरवेदिका आधा योजन ऊपर की ओर ऊँची है, सयविक्खंभेणं, लवणसमुद्दसमियपरिक्खेवेणं, सेसं तहेव। पांच सौ धनुष चौड़ी है, लवणसमुद्र के समान परिधि वाली है शेष उसी प्रकार है। १ (क) ठाणं २, उ० ३, सु०६१। (ख) सम० सु० १२५। (ग) जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १७२ । (घ) लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते ? एवं नेयव्वं-जाव-लोगद्विती, लोगाणुभावे । -भग. स. ५, उ. २, सु. १८ २ (क) प०-लवणे णं! समुद्दे केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? उ०-गोयमा ! पण्णरसजोयणसयसहस्साई एकासीति च सहस्साई सतं च इगुयालं किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते । -जीवा पडि. ३, उ. २, सू. १७२ जीवा. प्रति. ३, उ. २, सू. १५४ में लवणसमुद्र की परिधि १५,८१,१३६ (पन्द्रह लाख, इक्यासी हजार, एक सौ उनतालीस) योजन से कुछ अधिक की कही गई है और जीवा. प्रति. ३, उ. २, सूत्र १७२ में १५,८१,१३६ (पन्द्रह लाख, इक्यासी हजार, एक सौ उनतालीस) योजन से कुछ कम की कही गई है। यद्यपि यह अन्तर विशेष नहीं है किन्तु एक ही आगम में दो प्रकार के ये कथन भ्रान्तिमूलक हैं । (ख) जीवा. प्रति. ३, उ. २, सूत्र १७२ में लवणसमुद्र के (१) संस्थान, (२) चक्रवालविष्कम्भ, (३) परिधि, (४) उद्वध, (५) उत्सेध और सर्वप्रमाण से सम्बन्धित पांच प्रश्न एक साथ हैं तथा पाँच उत्तर भी एक साथ हैं । किन्तु यहाँ एक प्रश्नोत्तर टिप्पण में लिया है और शेष प्रश्नोत्तर विषयानुक्रम से विभक्त करके दिये गये हैं। (ग) सूरिय. पा. १६, सु. १००। ३ ठाणं. अ. २, उ. ३, सु. ६१ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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