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गणितानुयोग : प्रस्तावना | ६५
इसके समस्त नियमों के लिए धवला ग्रन्थ और त्रिलोक यतिवृषभ द्वारा १६ विकल्पों द्वारा द्वीप समुद्रों के विस्तार सार' दृष्टव्य हैं।
एवं क्षेत्रफल का अल्पबहुत्व विवरण दिया है ।10 किसी राशि की अद्धच्छेद राशि की भी अर्द्धच्छेद राशि वीरसेनाचार्य ने अधस्तन और उपरिम विकल्प द्वारा किसी निकाली जाये तो उसे वर्गशलाका राशि कहते हैं।'
भी राशि का विकल्प विधि द्वारा विश्लेषण किया है। अधस्तन विकल्प (प्रा० वियप्प)
विकल्प तीन प्रकार का है : द्विरूपवर्ग धारा, द्विरूपधन धारा, ___ इसका अर्थ गणितीय कल्पना (mathematical abstrac-
तथा द्विरूप घनाघन धारा। उपरिमविकल्प भी तीन प्रकार का
तथा द्विरूप घ tion) कर सकते हैं। इसे और भी व्यापक अर्थ में संचयक्रम है-गृहीत, गृहीत-गृहीत और गृहीत गुणकार । जिनमें से प्रत्येक संचय गणित भी लेते हैं जिसे भंग भी कहते हैं। टीकाकार प्रकार का पूर्व वि
प्रकार को पूर्व बिकल्प में विभाजित किया गया है। यह अत्यन्त शीलांक (ल० ८६२ ई०प०) ने संचय क्रमसंचय सम्बन्धी तीन
रहस्यमय विवरण है ।11 नियम बतलाये हैं।
संदृष्टि (प्रा० संदिट्ठि) __ इनमें से दो संस्कृत में हैं, और एक अर्द्धमागधी में है। प्रथम इस शब्द का अर्थ प्रतीक है। इसके लिये सहनानी शब्द का नियम द्वारा विशिष्ट संख्या की वस्तुओं के पक्षांतरण की कुल भी प्रयोग हुआ है। प्रतीकों के कुछ चिह्न तिलोयपण्णत्ति, धवला संख्या निकाली जाती है। इसे "भेद-संख्या-परिज्ञानाय" कहा में दिये हैं। किन्तु इनका सम्पूर्ण और अत्यन्त वृहद रूप गोम्मटहै। अथवा एक से प्रारम्भ कर, दी गई पद संख्या तक (प्राकृत) सार लब्धिसार क्षपणासार की टीकाओं में उपलब्ध है । इसे अर्थ संख्याओं को गुणित करने पर विकल्प गणित में परिणाम प्राप्त संदष्टि अधिकारों द्वारा पं० टोडरमल ने अपनी सम्यग्ज्ञान होता है। इसे Im अथवा 1, 2, 3....(m-2)(m-1)(m) चन्द्रिका टीका में स्पष्ट किया है। अकसंदृष्टि, अर्थसंदृष्टि कहते हैं। स्थानभंग और क्रमभंग रूप से भंग दो प्रकार और रूपसंदृष्टियाँ प्रचलित रही हैं । "अर्थ" से वस्तुओं के द्रव्य, के होते हैं।
क्षेत्र, काल, भाव के प्रमाणादि का बोध होता है। प्रमाणों की
m(m-1) संदृष्टि को ही अर्थ-संदृष्टि कहा गया है। इन सभी में इकाई संचय सूत्र क्रमश: "1 =m, "Cg == -
21.2
द्वारा
अवयव जैसे समय, प्रदेश, अविभागी प्रतिच्छेद आदि महत्वपूर्ण
भूमिका निभाते हैं । आचारांगनियुक्ति गाथा ५० में निम्नलिखित व्यक्त किये जा सकते हैं । शेष नियम प्रस्तारानयनोपाय हैं जिनसे
उल्लेख आया है। समस्त भिन्न क्रम संचय प्राप्त हो जाते हैं ।
नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (ल० ११वीं सदी) ने भी संचय "गणियं णिमित्त जुत्ती संदिट्ठी अवितहं इमं णाणं । विधि का विस्तृत विवेचन दिया है-यथा -
___ इय एगतमुवगया गुण पच्चाइय इमे अत्या ॥५०॥ संखा तह पत्थारो परियट्टण णठ्ठ तह समुट्ठिम् । घातादि के नियम (Laws of Indices) एदे पंच पयारा पमाद समुक्कित्तणे णेय ॥३५॥ अनुयोगद्वार सूत्र में घातों का उपयोग बड़ी संख्याओं को
प्रस्तार रत्नावली मुनि रत्नचन्द्र द्वारा सम्पादित की गयी निरूपित करने में किया गया है, जिन्हें स्थानमान पद्धति में भी है। यह विधि द्विपद प्रमेय के विकास में निर्णायक रही है। दर्शाया गया है। उदाहरणार्थ, कोटि कोटि में बीस स्थान मान
१ धवला, भाग ३, पृ०२० आदि ।
२ त्रि० सा०, गाथा १०५-१०८ । ३ देखिए धवला, भाग ३, पृ० २१-२४, तथा पृ०५६। ४ देखिये भ० स०, ८.१, श्लो० ३१४. और भी स० ०. ५ विस्तृत वर्णन हेतु देखिये कापडिया, एच० आर०. गणित टीका, श्लो०२८, समयाध्ययन अनुयोगद्वार। तिलक, बड़ौदा, १९३७, पृ०XIII.
६ देखिये हेमचन्द्र सूरि (१०८६ ई०) द्वारा अनुयोगद्वार सूत्र, ७ दत्त (१९३५), मेथामेटिक्स ऑफ नेमिचन्द, दी जैन श्लोक ६७ की टीका । हिन्दू गणितज्ञों ने इसे नहीं
एंटीक्वेरी, आरा, १, २, २५-४४ । देखिये गो० जी० का०, दिया है। गाथा ३५ आदि।
६ बाग, ए० के०, (१९६६), बायनामियल थ्योरम इन ८ प्रस्तार रत्नावली, बीकानेर, १९३४ ।
एंसिएंट इण्डिया। १० ति०प०, गाथा ५.२४२ आदि ।
११ धवला, भाग ३, पृ० ४२-६३ । १२ अर्थ संदृष्टि अधिकार गोम्मटसार एवं लब्धिसार (क्षपणासार गभित) की बृहद टीकाओं में उपलब्ध है जो गांधी हरिभाई.
देबकरण ग्रन्थमाला, कलकत्ता से १६१६ के लगभग प्रकाशित हुए।