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________________ ५०६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : तापक्षेत्र संस्थिति की परिधि सूत्र १०११-१०१२ प०–तत्थ को हेउ ति? वएज्जा, प्र०–उक्त व्यवस्था का हेतु क्या है ? कहें । उ०—ता अयण्णं जबुद्दीवे दोवे उ०-यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सब द्वीप-समुद्रों के अन्दर सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वन्भंतराए, सव्व खुड्डाए है, सबसे छोटा है। वट्टतेल्लापूय-संठाण-संठिए, तैल में पके हुए मालपुए जैसे वृत्ताकार संस्थान से स्थित है। वट्ट रहचक्कवाल-संठाण-संठिए, रथ के पहिए जैसे वृत्ताकार संस्थान से स्थित है। वट्ट पुक्खरकण्णिया-संठाण-संठिए, कमल-कणिका जैसे वृत्ताकार संस्थान से स्थित है । वट्ट पडिपुण्णचंद-संठाण-संठिए, प्रतिपूर्ण चन्द्र जैसे वृत्ताकार संस्थान से स्थित है। एग जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है । तिण्णि जोयणसयसहस्साइं, सोलससहस्साइं दोण्णि य सत्ता- तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन तीन कोस वीसे जोयणसए, तिण्णि य कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस अट्ठावीस धनुष तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुछ अधिक अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, उसकी परिधि कही गई है। -सूरिय० पा० ४, सु० २५ । तावक्खेत्तसंठिइए परिक्खेवा तापक्षेत्र संस्थिति की परिधि - १२. ता जयाणं सूरिए सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं १२. जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल का लक्ष्य करके गति करता है चरंति, तया णं उद्धोमुहकलंबुआ-पुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई तब ऊपर की ओर मुंह वाले नलिनी पुष्प के संस्थान जैसी तापआहिताति वएज्जा, अंतो संकुडा, बाहिं वित्थडा, अंतो वट्टा, क्षेत्र की आकृति होती है। बाहि पि थुला, अंतो अंकमुहसंठिया, बाहिं सत्थिमुहसंठिया, वह अन्दर से संकुचित, बाहर से विस्तृत, अन्दर से वृत्ताकार दुहओ पासेणं तोसे तहेव जाव सव्वबाहिरिया चेव बाहा, बाहर से विस्तृत, अन्दर से पद्मासन के अग्रभाग जैसी अर्थात् अर्द्धवलयाकार, बाहर से स्वस्तिक के अग्रभाग जैसी है । दोनों पार्श्वभाग से तापक्षेत्र की संस्थिति उसी प्रकार है यावत्-सर्वबाह्य बाहा, (क) तीसे गं सव्वभंतरिया बाहा-मंदरपब्वयं तेणं णव जोय- (क) उस (तापक्षेत्र) की सर्व आभ्यन्तर बाहा उसकी णसहस्साइं चत्तारि य छलसीए जोयणसए णव य दस- परिधि मन्दर पर्वत के समीप नौ हजार चार सौ छियासी योजन भागे जोयणस्स परिक्खेवेणं, आहिए त्ति वएज्जा, और एक योजन के दस भागों में से नौ भाग जितनी है। ५०-ता सेणं परिक्खेवविसेसे कओ? आहिए त्ति वएज्जा? प्र०--उस (सर्व आभ्यन्तर) बाहा की इस परिधि विशेष की सिद्धि किस प्रकार है ? कहें। उ०–ता जे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे, त परिक्खेवं उ०-मन्दर पर्वत की परिधि को तीन से गुणा करें । दश तिहि गुणित्ता, दसहि छित्ता दसहि भागे हीरमाणे- का भाग दें, दस का भाग देने पर यह परिधि विशेष होती है। एस णं परिक्खेवविसेसे, आहिए त्ति वएज्जा, (ख) तोसे णं सव्वबाहिरिया बाहा = लवणसमुदं तेणं, (ख) उस (तापक्षेत्र) की सर्व बाह्य बाहा = उसकी परिधि चउणउई जोयणसहस्साई, अट्ठ य अट्ठसठे जोयणसए, लवणसमुद्र के समीप चोराणवें हजार आठ सौ अडसठ योजन चत्तारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं, आहिए त्ति और एक योजन के दस भागों में से चार भाग जितनी है । वएज्जा, १ (क) चन्द. पा. ४ सु. २५ । (ख) जम्बु. वक्ख ७ सु. १३५ । २ मेरु की परिधि ३१,६,२३ योजन की है, इसे तीन से गुणा करने पर ६४,८,७६ योजन हुए। इनके दस का भाग देने पर (६.८,८६, लब्ध होते हैं- यह सर्व आभ्यन्तर बाहा की परिधि है ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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