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________________ सूत्र १०१०-१०११ तिर्यक्लोक : सूर्य के तापक्षेत्र को संस्थिति गणितानुयोग ५०५ ११. एगे पुण एवमाहंसु (११) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, उज्जाणसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, उद्यान बाग जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही एगे एवमाहंसु, १२. एगे पुण एवमाहंसु (१२) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, निज्जाणसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, निर्याण = ग्राम या नगर से निकलने के मार्ग जैसी (सूर्य के) एगे एवमाहंसु, ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही गई है। १३. एगे पुण एवमाहसु (१३) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, एगओ णिसधसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एक निषधरथ के एक बैल जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की एगे एवमाहंसु, संस्थिति कही गई है। १४. एगे पुण एवमाहंसु (१४) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, दुहओ णिसधसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, दो निषध =रथ के दो बैलों जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की एगे एवमाहंसु, संस्थिति कही गई है। १५. एगे पुण एवमाहंसु (१५) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, सेयणगसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु, सेचानक = बाज पक्षी जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही गई है। १६. एगे पुण एवमाहंसु (१६) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, सेयणगपट्टसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, सेचानक-पृष्ठ=बाज पक्षी के पृष्ठ भाग जैसी (सूर्य के) एगे एवमाहंसु, ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही गई है। वयं पुण एवं वदामो हम फिर इस प्रकार कहते हैंता जद्धीमुह कलंबुआ-पुष्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिती ऊपर की ओर मुंह किये हुए कलंबुकापुष्प =नालिका पुप्प पण्णत्ता, जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही गई है। अंतो संकुचिया, बाहिं वित्थडा अन्दर से संकुचित, बाहर से विस्तृत, अंतो वट्टा, बाहिं पिधुला, अन्दर से वृत्तवर्तुलाकार, बाहर से पृथुल = लम्बी-चौड़ी, अंतो अंकमुहसंठिया.' बाहिं सत्थिमुहसंठिया' अन्दर से अंकमुख = पद्मासन स्थित पुरुषाकार है बाहर से -सूरिय. पा. ४, सु. २५ स्वस्तिक-अग्रभागाकार है। तावक्खेत्त संठिइए दुवे बाहाओ तापक्षेत्र संस्थिति की दो बाहायें११. उभओ पासेणं तीसे दुवे बाहाओ अवट्ठियाओ भवंति, पण- ११. तापक्षेत्र के दोनों पार्श्व में दोनों बाहायें पैतालीस पैतालीस यालीसं पणयालीसं जोयणसहस्साई आयामेणं, हजार योजन लम्बी अवस्थित हैं। तीसे दुवे बाहाओ अणवट्ठिआओ भवंति, तं जहा-१. सन्व ये दोनों बाहायें अनवस्थित हैं। यथा-(१) सर्व आभ्यन्तर भंतरियो चेव बाहा, २. सव्व बाहिरिया चेव बाहा, बाहा, (२) सर्व बाह्य बाहा, १ अंतर्मरुदिशि अंक = पद्मासनोपविष्टस्योत्संगरूप आसनबन्धः तस्य मुखं अग्रभागोर्द्धवलयाकारस्तस्येव संस्थित संस्थानं यस्या सा. २ (क) तथा बहिर्लवण दिशि स्वस्तिकमुखसंस्थिता, स्वस्तिकः सुप्रतीतः तस्य मुखं अग्रभागः तस्येवातिवस्तीर्णतया संस्थित-संस्थान यस्या सा, (ख) चंद. पा. ४ सु, २५ । ३ "ये द्वे बाहे ते आयामेन-जम्बूद्वीपगतमायाममाश्रित्यावस्थिते भवतः ।" -सूरिय. वृत्ति. ४ " च बाहे अनवस्थिते भवतः तद्यथा सर्वाभ्यन्तरा, सर्व बाह्या च । . (क) तत्र या मेरुसमीपे विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्वाभ्यन्तरा । (ख) या तु लवणदिशि जम्बुद्वीप पर्यन्त विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्व बाह्यबाहा । (ग) आयामश्च-दक्षिणायततया प्रतिपत्तव्यो, विष्कम्भः पूर्वापरायततया । बाहा,
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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