________________
५६
गणितानुयोग : प्रस्तावना
है विशेषकर देवताओं के गुणगान, वंदना मात्र हैं, उच्च सभ्यता के द्योतक हैं। वेदों के बाद का ब्राह्मण साहित्य ( लगभग २०००१००० ई० पू० ?) अंशतः धार्मिक और अंशतः दार्शनिक है। इन्हीं ग्रन्थों में ही अंकगणित, क्षेत्रगणित और बीजगणित आदि तथा गणित ज्योतिष का प्रारम्भ मिलता है । इसके पश्चात् बौद्ध एवं जैन संस्कृतियों का साहित्य स्पष्ट रूप से अहिंसा क्रांति का रूप लेकर एवं नयी चेतना का स्वरूप लेकर प्रकाश में आया । इनमें जैन संस्कृति में गणित ने अत्यन्त सुन्दर एवं गहरी भूमिका अदा की तथा सृष्टि रचना, ज्योतिष एवं कर्म सिद्धान्त की जड़ों को सबल, पुष्ट एवं गहरा बनाने की श्रेयस्कर भूमिका निभाई।
डा० ए० के० बाग ने अपने ग्रन्थ में गणित विकास के व्यवस्थित अध्ययन हेतु उसे प्राचीन भारत के वैदिक युग (लगभग १५०० ई० पू० से २०० ई० पू० ) तथा पश्च-वैदिक युग (लगभन २०० ई० पू० से ४०० ई० प० की अनुवर्ती अवस्थाओं में विभाजित किया है। उन्होंने वैदिक युग में गणितीय ज्ञान के उद्गम के सम्बन्ध में व्यक्त किया है- " About two thousand years before the Christian era, the Indus Valley was invaded by an Aryan race. Following this, an about 1500 B. C., a crude civilisation known as the Vedic civilisation began to emerge in India."
वैदिक सभ्यता का विकास चार प्रक्रमों में हुआ ( १ ) संहिता (ऋक्, साम, यजुर् एवं अथवन्) (२) ब्राह्मण (आध्यात्मिक एवं धार्मिक ग्रन्थ) (३) आरण्यक (जो ब्राह्मण ग्रन्थों के आधिभौति कीय परिशिष्ट रूप में थे), और उपनिषद ( दार्शनिक ग्रन्थ) तथा (४) वेदांगों का अंतिम प्रक्रम ।
वैदिक युग ' के प्रथम तीन प्रक्रमों में जो साहित्य है उसमें गणितीय विचार संबंधी सूचना अत्यल्प है । इस प्रकार डा० बाग के अनुसार वेदांग साहित्य जो सम्पूर्ण सूत्र साहित्य के रूप में जाना जाता है। यहाँ सूत्र शब्द गम्भीरता से लिया गया है। यह वेदांग साहित्य ६ प्रकार का है : (१) शिक्षा (२) कल्प ( यज्ञादिनियम) (३) व्याकरण (४) निरुक्त (५) छंद (६) ज्योतिष ।
इस सूत्र साहित्य के आलोचनात्मक गणितीय ज्ञान से यह मानना पड़ सकता है कि इससे भी पूर्व युग में गणितीय ग्रन्थ रहे होंगे जो विलुप्त हो गये । सात शुल्बकार आपस्तम्ब,
कात्यायन, मानव, मैत्रायन, वाराह एवं हिरण्यकेशी, विख्यात हैं, जिन्होंने वैदिक बलि वेदियों की रचना संबंधी विभिन्न प्रश्नों के हल दिये हैं । यह रेखागणित का स्वरूप था । सबसे पूर्व के बौद्धायन शुल्बकार ने पिथेगोरस के साध्य का प्रतिज्ञापन किया है । यहाँ २ का मान दशमलव के पाँच अंकों तक निकाला गया है । इनके पश्चात् जैन जाति का उदय ई० पू० ५००-३०० के लगभग होता है ।
वेदांग ज्योतिष के गणित के संबंध में तीन बार संशोधन (recensions) जो आर्च ज्योतिष, याजुष ज्योतिष और अथर्वज्योतिष कहलाए और उनका गणित वैदिक गणित के उद्गम रूप में माना जा सकता है । आधुनिक विद्वान साधारणत: वेदांग ज्योतिष को २०० ई० पू० का मानते हैं।
वैदिक भारत में संख्याओं की गिनती इस पद्धति के आधार पर मानी जाती है। यजुर्वेद संहिता, तैतरीय संहिता, मंत्रायणी संहिता आदि में दश, शत, सहस्र, अयुत (१०४), नियुत (१०५) आदि संख्याएँ आई हैं। एकादश सप्तविंशति, आदि संयुक्त शब्दों द्वारा संख्याओं को प्ररूपित किया जाता रहा । * इन्हें शुल्ब सूत्र तथा बाद के ग्रन्थों में भी समझाया जाता रहा । आपस्तम्ब शुल्ब में ६७२ को अष्टविंशत्यूनम् सहस्र अर्थात् १००० - २८ रूप में व्यक्त किया गया ।
1
1
तरीय संहिता (७.२.१२-१३ ) में विषम सम संख्याओं का विभाजन प्रकट हुआ। भिन्नों का उल्लेख अर्द्ध पाद, सड और कला के रूप में क्रमश: 2, 4, 3, 17, के रूप में वैदिक साहित्य में मिलता है । शुल्बों में भी है, 10, आदि भिन्नात्मक संख्याएं मिलती हैं ।" इस प्रकार शुल्बकारों को चार परिकर्म एवं भिन्न का प्रारंभिक रूप ज्ञात था । शत्पथ ब्राह्मण, तैत्तरीय ब्राह्मण, छांदोग्य उपनिषद, वेदांग ज्योतिष आदि में संख्याओं को दसाह पद्धति पर आधारित शब्दों के द्वारा व्यक्त किया है।
।
वैदिक हिन्दुओं की प्रमुख धार्मिक प्रथा बलि थी जिसके लिए उपयुक्त समय निकालने हेतु ज्योतिष विकसित होना माना जाता है । वैदिक वेदियाँ मुख्यतः आनीय, गार्हपत्य, दक्षिनाम्नि महावेदी, सौत्रमणि, प्राग्वंश, श्येनसित, वक्रपक्ष, व्यस्तपुच्छ, श्येन, कंक, खलज प्रोग आदि रूपों में विकसित की गई थीं। तदनुसार उनकी रचना आदि की पूर्ण व्यवस्था शुल्बकार किया करते थे ।
१ Mathematics in Ancient and Medieval India, चौखम्भा ओरियण्टकिया, वाराणसी, कोर्स- १६, पृ० ३ आदि ।
२ विशेष अध्ययन हेतु देखिए, Sen, S. N and Bag, A. K., “ The Shulbasutras" INSA, New Delhi, 1983, ३ देखिये, बाग, ए. के., वही, पृ०
७
४ यजुर्वेद संहिता (१७२) संसरीय संहिता (४४० ११४) आदि आपस्तम्ब शुल्ब (२७)
५ दत्त एवं सिंह, हिन्दू गणितशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० १८५, मोतीलाल बनारसीदास, लाहोर, १६३५, (अंग्र ेजी)
६ दत्त, वि०, वा साइंस ऑफ शुल्ब, कलकत्ता वि० वि०, पृ० २१२, १९३२.