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________________ गणितानुयोग : प्रस्ताबना हो पाये थे । जब १९३५ में दत्त और सिंह ने "हिन्दू गणित का धिगमभाष्य, सूर्यप्रज्ञप्ति, अनुयोगद्वार सूत्र, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, इतिहास" अंग्रेजी में प्रकाशित करवाया, वे पूर्व खोजों में कोई त्रिलोकसार इत्यादि सम्मिलित हैं। इनमें अब धवला को जोड़ा अतिरिक्त सामग्री नहीं जोड़ पाये; तथापि इन लेखकों को प्रतीत हुआ कि जैन आम्नाय का गणित-क्षेत्र मुख्यतः स्थानांग सूत्र वीरसेनाचार्य ने धवला में निम्नलिखित गणितीय अथवा अग(श्लोक ७४७) में प्राप्त एक प्रलोक में उल्लिखित है, जिस पर णितीय ग्रन्थों से उद्धरण दिये हैं और कुछ उद्धरण ऐसे हैं जिन खोज की जानी चाहिये : ग्रन्थों के कर्ताओं के नाम अज्ञात हैं :'परिकम्मं ववहारो रज्जु रासी कलासवण्णे य । कषाय प्राभूत, काल सूत्र, तत्त्वार्थभाष्य, वर्गणा सूत्र, वेदना जावत्तावति वग्गो घणो त तह वग्गवग्गो विकप्पो त ॥' क्षेत्र विधान, सत्कर्म प्राभृत, सम्मति सूत्र, अप्पाबहुग सुत्त, यहाँ परिकर्म (मूलभूत गणित की प्रक्रियाएं), व्यवहार, रज्जु खुद्दाबंधसुत्त, जीवट्ठाण, तत्वार्थसूत्र, तिलोयपण्णत्ति, परि(विश्व-लोक माप की इकाई), राशि (सेट), कला सवर्ण (भिन्न यम्म, पिंडिया, वियाहपण्णत्ति, वेयणा सुत्त, संतकम्म पाहुड, सम्बन्धी कलन), यावत् तावत् (सरल समीकरणादि), वर्ग (वर्ग संतसुत खेतणिओगद्दार, गाहासुत्त (कसाय पाहुड), जीव समीकरणादि), घन (धनसमीकरणादि), वर्गवर्ग (द्विवर्ग समी समास, निर्यासु बंधसुत, दव्वाणि ओगद्दार, पंचत्थि पाहुड, करणादि), एवं विकल्प (धाराएँ, क्रम, संचय आदि) अनेक संताणि ओगद्दार, उच्चारण, काल विहाण, कालाणि ओगपारिभाषिक शब्दों से है जिनमें से कुछ गणितसारसंग्रह में आये द्दार, निक्षेपाचार्य प्ररूपित गाथा, प्रदेश बंध सूत्र, प्रदेश हैं । दत्त ने इसी प्रकार के अन्य पारिभाषिक गणितीय शब्द विरचित अर्थाधिकार, बंधसूत्र, महाकर्म प्रकृति प्राभृत, 'एकत्रित किये थे जो मुख्यतः श्वेताम्बर आम्नाय के ग्रन्थों में से महाबंध, काल निर्देश सूत्र, चूणिसूत्र, खण्डग्रन्थ, भावविधान, उपलब्ध किये गये। मूलतंत्र, योनि प्राभृत, सिद्धि विनिश्चय, बाहिर वग्गणा, जब सिंह ने धवला टीकाओं (भाग ३ और ४)1 का अध्य वेयणा सुत्त, पोत्थिय, कर्मप्रवाद, सूत्र विशेष, इत्यादि । यन किया तो उन्होंने प्रथम तो यह सिद्ध करने का प्रयास किया नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने त्रिलोकसार में वृहद्धारा परिकि किसी भी ग्रन्थ में जो गणितीय सामग्री पाई जाती है वह कर्म का उल्लेख किया है जो अब अप्राप्य है। इसी प्रकार तिलोय प्रायः ३०० से ४०० वर्ष पूर्व की संरचित होती होगी। उनकी पण्णत्ति में ग्रहों का गमन विवरण का उस समय कालवश नष्ट और आगे अभ्युक्ति है, “यद्यपि अनेक जैन गणितज्ञों के नाम होना बताया गया है। हो सकता है कि पंचवर्षीय युग पद्धति जैसी ही वह अनेक वर्षीय युग पद्धति में बांधा गया हो, जोआर्यभट ज्ञात हैं उनके ग्रन्थ विलुप्त हो गये हैं । सर्वाधिक पूर्व के भद्रबाहु काल से प्रकट होती देखी गयी है। हैं जिनका देहावसान २७८ई० पू० हुआ। कहा जाता है कि उन्होंने सूर्य प्रज्ञप्ति भाग (१) में मुनि घासीलाल ने पृ० ८६ में दो ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ रचे : (i) सूर्यप्रज्ञप्ति टोका (ii) भद्रबाहू कुछ गाथाओं के विलुप्त होने से अर्थ निकालने में कठिनाई का संहिता । इसका उल्लेख सूर्यप्रज्ञप्ति की टीका में मलयगिरि अनुभव किया है। यहाँ क्या एपिसाइकिल का सिद्धान्त शोधन (लग० ११५०) द्वारा भट्टोत्पल (६६६ ई०) द्वारा हुआ है। अन्य हेतु १२४ तथा १४४ संख्याओं का किस तरह उपयोग हुआ है जैन ज्योतिषी का नाम सिद्धसेन है जिसका उल्लेख वराहमिहिर वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। (५०५ ई०) तथा भट्टोत्पल ने किया है । अनेक ग्रन्थों में गणितीय । ५. वैदिक संस्कृति में भूगोल, ज्योतिष एवं उल्लेख अर्धमागधी तथा प्राकृत में मिलते हैं । धवला में ऐसे अनेक उद्धरण पाये गये हैं। इन उद्धरणों पर उपयुक्त स्थान पर विचार खगोल आदि संबंधी गणित किया जायेगा, किन्तु यहाँ स्मरण रखना चाहिये कि जैन विद्वानों भारत में मुख्यतः दो संस्कृतियों की चर्चा आती है - वैदिक द्वारा लिखित ऐसे गणितीय ग्रन्थों का निस्सन्देह रूप से अस्तित्व संस्कृति और श्रमण संस्कृति । वैदिक संस्कृति का दर्पण वेद एवं था जो अब विलुप्त हो गये हैं । क्षेत्र समास तथा करण भावना उपनिषद हैं जिनमें हमें देखना है कि गणित का क्या स्वरूप था। नामक ग्रन्थ जैन विद्वानों द्वारा रचित हुए किन्तु अब वे अप्राप्य यह साहित्य कब रचा गया, इस पर मत पूर्वीय एवं पाश्चात्य हैं । जैन गणित सम्बन्धी हमारा ज्ञान जो कि अधूरा है, कुछ ऐसे विद्वानों में अलग-अलग हैं। प्राचीनतम उपलब्ध वेद, जो सिंह अगणितीय ग्रन्थों से प्राप्त हुआ है जिनमें उमास्वाति का तत्त्वा- के अनुसार ३००० ई० पू० अथवा संभवतः इससे अधिक प्राचीन १ मेथमेटिक्स ऑफ धवला, षड् iv, १६४२, पृ० -xxiv २. देखिये वही पृ० iii ३ श्री सूर्यप्रज्ञप्ति, प्रथम भाग, अहमदाबाद, १९८१ ४ हिन्दू गणितशास्त्र का इतिहास, भाग १, लखनऊ, १६५६, पृ० १ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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