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________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना "असंख्य" संख्यामान से अवतरित होता है। सूत्र ३१, पृ० १५ "कोटाकोटि" दाशमिक पद्धति से अवतरित है। यहाँ खगोल विज्ञान विषयक पृच्छा है। काल के अनादि और "योजन" खगोल विषयक माप योजना से सम्बन्धित है। अनन्त से सम्बन्ध रखने वाली लोक संरचना से अभिप्रेत है। इन शब्दों के लिए जै. सि० को०, जै० ल० एवं रा० अ० यहाँ ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित, नित्य को० देखिये। शब्दों के अभिप्राय खगोल विज्ञान सम्बन्धी भिन्न-भिन्न हैं । यहाँ काल के दो बड़े युग अवसर्पिणी काल एवं उत्सर्पिणी काल शब्द सूत्र २४, पृ० ११ युग विज्ञान से सम्बन्धित हैं। भारत में युग विज्ञान द्वारा ग्रहादि ____ इस सूत्र में “वाससहस्साउए' अर्थात् १००० वर्ष की आयु भ्रमण का ज्योतिष में उपयोग आर्यभट्ट (लगभग ई० पाँचवीं वाला शब्द महत्वपूर्ण है, जो गणित विधि में दाशमिक संकेतना शती) ने किया। इसके पूर्व भी न केवल वैदिक ग्रन्थों में अपितु के रूप में विशेष प्रयुक्त हुआ है। जैन ग्रन्थों में भी युग विभिन्न प्रकार से संरचित किये गये। इस सूत्र २५, पृ० १२ पर विशेष शोध फ्रांस के रोजर विलर्ड ने कम्प्यूटर द्वारा लोक का आयाम-मध्य रत्नप्रभा पृथ्वी के अवकाशान्तर का की है। असंख्यातयां भाग उल्लंघन करने पर पाया जाता है। सूत्र ३२, पृ० १६ यहाँ आयाम-मध्य शब्द ज्यामितीय है और सान्त आयाम लोक सान्त है या अनन्त है का समाधान द्रव्य, क्षेत्र, काल, (लम्बाई) के मध्यभाग की कल्पना कर दो समान भागों में बाँटने भाव प्रमाणादि के सापेक्ष उत्तर देकर किया गया है। विभिन्न का निर्देश है । अवकाशान्तर भी ज्यामिति से दूरी के अन्तर को प्रमाण प्रस्तुत करते हुए निर्देश है कि द्रव्य की अपेक्षा लोक निर्देशित करता है। इसी प्रकार असंख्यातवें भाग की कल्पना भी सान्त, क्षेत्र की अपेक्षा लोक सान्त, काल की अपेक्षा यह लोक अद्वितीय है जो गणित में सीमा निकालने में प्रयुक्त होती है। अनन्त और भाव की अपेक्षा से लोक अनन्त है। इस प्रकार यहाँ देखिये जै ० सि० को० भाग १, पृ०२१४ इत्यादि । गणितीय सापेक्षता द्वारा समाधान निहित है। सूत्र २६, पृ. १२ द्रव्य लोक सम्बन्धी गणितीय विवरण ___ लोक का "सम भाग" और "संक्षिप्त भाग" लोकस्वरूप को सत्र ४१, पृ०१८ संकल्पनाएँ हैं । इसमें ज्यामिति अभिप्रेत हैं। लोक में दो प्रकार के अस्तित्व रूप वस्तुएँ अथवा पदार्थ सूत्र २७, पृ. १२ उल्लिखित हैं जो खगोल विज्ञान एवं खगोल संरचना विषयक हैं। लोक का "वक्रभाग” भी विग्रह कांडक अर्थात् ज्यामितीय अगले दो सूत्रों में भी इसी प्रकार खगोलः विषयक विज्ञान एवं सकल्पना है । श्वेताम्बर-परम्परा की मूल मान्यता के आधार पर सरचना बतलाई गई है। इसके विचार हेतु देखिये वि० प्र०, पृ० ३०२ आदि । इनका सूत्र ५०, पृ० २० तात्पर्य शोध का विषय है। लोक विषयक द्रव्यों को और उनकी संख्या को रतलाकर सूत्र २८, पृ० १३ खगोल संरचना रूप कहा है। नीचे से विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर से ऊर्ध्व मृदंग सूत्र ५१, पृ० २० के ज्यामितीय आकार का लोक निदिष्ट है। दश दिशाओं के भेद और स्वरूप ज्यामिति गणित में प्रयुक्त सूत्र २६, पृ० १३ होते हैं । आगे के सूत्र में इनके नाम भी दिये गये हैं। आठ प्रकार की लोकस्थिति खगोल विज्ञान से सम्बन्ध सूत्र ५३, पृ० २१ रखती है। इसमें इन्द्रा एक दिशा अनेक प्रदेश बाली सीधी रेखा का सूत्र ३०, पृ० १४ विवरण है। लोक की अपेक्षा वह असंख्य प्रदेश वाले और अलोक की दस प्रकार की लोकस्थिति जीव और पुद्गल की गमनशीलता अपेक्षा अनन्त प्रदेश वाले हैं। सीधी रेखा में प्रदेश स्थापित कर सम्बन्धी पर्यायों से सम्बन्ध रखती है। उनकी सीमाएँ निर्धारित (अथवा परमाणु-रूप प्रदेश स्थापित कर) गणितीय माप संरचित करती है। अतः यह गति एवं स्थिति विज्ञान से सम्बन्धित है। होता है । आदि में दो प्रदेश होने से इसकी दिशा निर्दिष्ट हो जाती
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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