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४८ गणितानुयोग : प्रस्तावना
२. प्राचीन गणित का आधुनिक गणित में क्रमशः विकास प्राचीन गणित विश्व के कुछ सभ्यता के केन्द्रों पर अपने अठारहवीं सदी के अंत और उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में क्रांति अभिलेख सुरक्षित रहे होने के कारण प्रकाश में आया। इन केन्द्रों प्रारम्भ हुई। इस क्रांति से गणितीय क्षेत्र में जो गति आई उसने में विशेषकर बेबिलन, मिस्र और भारत सुप्रसिद्ध हैं ।* बीज, संख्या गणित को अनेक नये रूप दिये । इस प्रकार शुद्ध गणित को और और आकृति द्वारा गणित के रूप का विकास हजारों वर्ष तक भी विस्तृत होने का अवसर नित्य प्रति प्राप्त होता चला गया । चला किन्तु सर्वाधिक क्रान्ति बर्द्धमान महावीर के युग में तथा प्राचीनकाल में हुए प्रमुख गणितज्ञों को अंगुली पर, गिना जा विगत शताब्दी में दृष्टिगत हुई है, जिसे महात्मा गांधी युग कहा सकता है, किन्तु विगत दो, तीन एवं आधुनिक शताब्दी में उनकी जा सकता है। अहिंसा का आन्दोलन सर्वव्यापी होता है और संख्या में विशेष वृद्धि अवलोकित की जा सकती है। महान् तीर्थ का प्रवर्तन करता है। तीर्थकर महावीर की क्रान्ति
आज से प्रायः तीन सौ वर्ष पूर्व के गणित को चिरप्रतिष्ठित आत्मिक थी और महात्मा गांधी की राजनैतिक ।
गणित कहा जाता है। वह आज भी अपनी शक्ति एवं केन्द्रीय प्राचीन काल में नदियों के किनारे विकसित हुई प्रायः ५००० स्थिति प्रतिष्ठित किये है। केलकुलस अर्थात् सूक्ष्मतम परिवर्तन वर्ष पूर्व में विकसित सभ्यताओं वाले उक्त देशों में ज्योतिष एवं का संकलन और विकलन, लिमिट अर्थात् सीमा, फंक्शन अर्थात् लौकिक गणनाओं हेतु रेखागणित, अंकगणित और बीजगणित के दो वस्तुओं आदि के सम्बन्धों का फलन, विश्लेषण, चलन और आदिम रूप को खोजा गया होगा। कृषि सम्बन्धी काल गणना अवकल कलन एवं समीकरण आज भी आधुनिक गणित पर छाये हेतु पंचांग को विकसित किया गया होगा और भवन सम्बन्धी हए हैं । ज्यामिति में फलन और संख्यात्मक संलग्नता की धारणा रचना के लिए यांत्रिकी को विकसित किया गया होगा । इनमें से स्थल विज्ञान और चलन ज्यामिति की उत्पत्ति हई । ये दोनों प्रयुक्त गणित का विकास हुआ होगा ।
ही आधुनिक गणित की सर्वाधिक क्रियाशील शाखाएँ हैं। गणित में मुख्यतः पाँच धाराएँ गतिशील रही है। प्राचीनतम आज भी आधुनिक गणित का आधार संख्या ज्यामिति और काल में संख्या और आकृति से काम चलता रहा । बाद में बीजगणित हैं किन्तु उनके रूप व्यापक हो चुके है । जब संख्याओं और आकृतियों में सम्बन्ध स्थापित किये जाने लगे। विज्ञान के सिद्धांतों में गणित को प्रविष्ट किया गया तो गणितीय इन सम्बन्धों के सहारे और पूर्णांक संख्याओं के सिवाय ऋणात्मक, मितालों को नया मोड लेना पडा । अब संख्याएँ अनन्त के क्षेत्र भिन्नात्मक और वर्गात्मक, वर्गमूलात्मक संख्याओं को रेखाकृतियों में प्रवेश कर अनन्तात्मक राशियों की रचना विज्ञान को समुन्नत द्वारा निरूपित किया गया । अखण्डता अथवा संलग्नता के प्रसंग कर चकी हैं । ज्यामिति पूर्व में रेखा तथा ठोस और आकाश के को गणितीय विधियों द्वारा निरूपित करने के प्रयास किये जाने बिन्दओं तक ही सीमित थी, किन्तु अब वह सभी संभाव्य काल्पलगे।
निक आकाशों की वस्तु हो गई है। उच्च बीजगणित द्वारा अब इस प्रकार पूर्णांक संख्याओं से सम्बन्धित समस्याओं से रुचि कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है। रखने वाले गणितज्ञ संख्यासिद्धान्त, आधुनिक बीजगणित, और
प्रायिकता गणित की उत्पत्ति खेल-खेल में हुई थी। परन्तु गणितीय तर्क की ओर बढ़ गये । अपूर्णांक संख्याओं की समस्याओं आज इसके द्वारा उन होने वाली घटनाओं का ज्ञान हो जाता है में रुचि रखने वाले गणितज्ञ ज्यामिति, विश्लेषण-गणित और प्रयुक्त जिनकी प्रागक्ति पूर्ण रूप से नहीं की जा सकती है । घटनाओं को गणित को लेकर विज्ञान तथा यत्रादि कला की ओर लग गये। राशियों के और प्रायिकता को क्षेत्रफल या घनफल के रूप में
उपर्युक्त चार प्रकार की धाराओं के सिवाय एक और महत्व- लेकर समस्याओं को प्रमाण सिद्धान्त का विषय बना लिया जाता पूर्ण धारा गतिशील हुई । ज्योतिष एवं यांत्रिकी से लेकर जीव- है जिसे मेजर थ्योरी कहते हैं । विगत तीस वर्षों में गणितज्ञों ने शास्त्र, मनोविज्ञान, समाजविज्ञान, आदि में ज्यों-ज्यों गहराई में ऐसी घटनाओं के सिद्धान्त पर खोज की है जो काल के प्रवाह में जाने की आवश्यकता प्रतीत हुई, त्यों-त्यों गणित का अवलंबन लगातार परिवर्तित होती हैं । घटनाओं के इस सिद्धान्त जो स्टाकिया जाने लगा। इस प्रकार प्रायः सत्रहवीं सदी के प्रारंभ से केस्टिक प्रक्रमों का सिद्धान्त कहते हैं । प्रायिकता का विषय आज कुछ वर्षों बाद गणित एवं विज्ञान अगम्य और अपार रूप से सूचना सिद्धांत, कतारों का सिद्धांत, विसरण सिद्धान्त और गणितीय विकसित होता चला गया । उद्योग और शोध कार्यों में प्रायः सांख्यिकी जैसे नवीन विस्तृत क्षेत्रों को आलिंगित करता है ।
* विशद वर्णन हेतु देखिये महावीराचार्य का गणितसार संग्रह, प्रस्तावना, शोलापुर, १९६३ ।।