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काल द्रव्य है, जो अविभाज्य है, अतः इसके प्रदेश नहीं हैं और प्रदेशों के न होने से ही यह काल द्रव्य अस्तिकाय नहीं है । शेष पांच द्रव्यों के प्रदेश हैं अतः वे अस्तिकाय हैं। इन्हों पंचास्तिकायों से यह लोक, द्रव्यलोक कहा जाता है।
क्षेत्र-लोक : लोक का विस्तार
इस अनन्त आकाश में प्रतिदिन होने वाले चन्द्र-सूर्य के उदायस्त को तथा झिलमिलाते अनगिनत तारों को देखकर जब कभी मानव ने चिन्तन किया तो उसके मन में विश्व के विस्तार की परिकल्पना जागृत हुई और वह सोचने लगा कि नीचे-ऊपर और दायें-बायें यह लोक (विश्व) कितनी दूरी तक फैला हुआ है ? यह असीमअनन्त है या ससीम सान्त है ?
(१) यह लोक नीचे-ऊपर और दायें-बायें असंख्य कोटा कोटी योजन पर्यन्त फैला हुआ है यह असत्कल्पना से लोक के विस्तार का अंकन है।
(२) जम्बूद्वीप के मध्य में स्थित मेरु पर्वत की चूलिका को छह देव घेर कर खड़े रहें और नीचे जम्बूद्वीप की परिधि पर चार दिग्कुमारियाँ चारों दिशाओं में बाहर ( लवण समुद्र) की ओर मुंह करके खड़ी रहें । वे चारों एक साथ चारों बलिपिण्डों को बाहर की ओर फेंके । पृथ्वी पर गिरने से पूर्व उन बलिपिण्डों को वे देव एक साथ ग्रहण कर सकें, ऐसी दिव्यगति वाले वे देव, लोक का अन्त पाने के लिए पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊपर और नीचे की ओर एक साथ चलें। जिस समय वे देव मेरु की चूलिका से चलें, उस समय एक हजार वर्ष की आयु वाला व्यक्ति व उसकी सात पीढ़ियाँ भी समाप्त हो जाएँ और उसके नाम गोत्र भी
(१) प्रथम समाधान, द्वितीय और तृतीय समाधान
जैनागमों में तथा ग्रन्थों में उक्त जिज्ञासाओं के तीन की अपेक्षा प्राचीन तथा तर्कसंगत प्रतीत होता है। समाधान मिलते हैं। :― आधुनिक विज्ञान भी विश्व का विस्तार असंख्य योजन का ही मानता है । यथा एक घण्टे में प्रकाश की गति ६७८७४४० मील है । इस अनन्त आकाश में अनेक ग्रह ऐसे हैं जिनका प्रकाश पृथ्वी पर अनेक वर्षों में पहुँचता है अतः लोक का विस्तार असंख्य कोटा कोटी योजन मानना ही ठीक है ।
१ काय अर्थात् - शरीर के देश-प्रदेशों के समान काल द्रव्य के देश-प्रवेश नहीं है। इसलिए काम प्रभ्य होते हुए भी अस्तिकाय नहीं है।
भगवती, श. ११. उ. १० ।
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नष्ट हो जाए फिर भो वे देव-लोक के अन्त को न पा सकें। किन्तु इस समय तक देवताओं ने जितना क्षेत्र पार किया है वह अधिक है और शेष क्षेत्र अप है।
(३) चौदह रज्जु प्रमाण लोक तथा एक रज्जु का औपमिक माथ
तीन क्रोड, इक्यासी लाख सत्ताइस हजार नौ सौ सत्तर मण वजन का "एक भार" होता है। ऐसे हजार भार अर्थात् - ३८ अरब, १२ क्रोड, ७६ लाख, ७० हजार मण वजन का एक लोहे का गोला छः मास, छः दिन, छः प्रहर और छः घडो में जितनी दूरी तय करे उतनी लम्बी दूरी एक रज्जु होता है। ऐसे चौदह रज्जु प्रमाण यह लोक नीचे से ऊपर पर्यन्त है।
उक्त तीन समाधानों की क्रमशः समीक्षा :
(२) प्रस्तुत असत्कल्पना के सम्बन्ध में निम्नलिखित मुद्दे विचारणीय हैं—
देवों को केवल आधे रज्जु की दूरी ही तय करनी है । (क) पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में जाने वाले अतः समान वेग वाले देवों ने समान समय में, समान दूरी तय कर ली - यह कैसे संगत हो सकता है ?
टीकाकार आचार्य ने भी इस सम्बन्ध में अपना यदि समचतुर मान लिया जाये तो समान वेग वाले अभिमत प्रस्तुत करते हुए कहा है कि लोक का आकार देव समान समय में समान दूरी तय कर सकते हैं, अन्यथा आगमोक्त उदाहरण की संगति सम्भव नहीं है ।
(ख) देवों द्वारा नहीं पार किया हुआ क्षेत्र, पार किये हुए क्षेत्र के असंख्यातवें भाग जितना है। अर्थात् देवों द्वारा नहीं पार किये हुए क्षेत्र से पार किया हुआ क्षेत्र असंख्यात गुणा अधिक है। इस आगम निर्णय की संगति किस प्रकार की जाए ?