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गणितानुयोग : प्रस्तावना | ७१
है। इसी प्रकार VN -Vi_y=b-2 रूप में भी
(viii) खण्ड की ऊंचाई प्राप्त करने हेतु
२ पाद =१ वितस्ति २ वितस्ति = १ रत्नी २ रत्नी =१ कुक्षि
२ कुक्षि =१ धनुष्य सन्निकटता की व्यवस्था हेतु /१० का मान निकालने हेतु २००० धनष्य : 'तिलोयपण्णत्ति का “खखपदस्सं सस्सपुढं" प्रकरण, डा० आर०सी० ४ गव्यूति = १ योजन गुप्ता ने V३)2+१ रूप लेकर प्राप्त किया है। यहाँ VN इसी प्रकार काल प्रमाण भी दो प्रकार का है : प्रदेशनिष्पन्न
एवं विभाग निष्पन्न । प्रदेश निष्पन्न असंख्य प्रकार का है और =Vatx +-रूप में रखने की जैन प्रणाली रही १समय से लेकर असंख्यात समय तक है। विभाग निष्पन्न के
अनेक प्रकार हैं :--(१) समय (२) आवलिका (३) मुहूर्त (४) अहोरात्र (५) पक्ष (६) मास (७) ऋतु (5) अयन (९) संवत्सर
(१०) युग (११) पूर्वांग इत्यादि ।' उपर्युक्त को समय से निम्नइसे रख सकते हैं। इस प्रकार ग=V१०=V(३) +१=
लिखित सम्बन्ध से जोड़ा है :
असंख्य समय =१ आवलिका - रूप में जैन अन्यों में प्रचलित है।
संख्यात आवलिका = १ निश्वास या १ उच्छवास
१ उच्छ्वास+११ श्वेताम्बर चार प्रकार के प्रमाणों का वृहद वर्णन कापड़िया ने सिंह तिलक सूरि की गणित तिलक टीका में किया है, जो
७प्राण
= १ स्तोक दिगम्बर ग्रन्थों के मानों से भिन्न हैं। स्थानांग सूत्र में ५ प्रकार
७ स्तोक =१ लव के अनन्तों का विवरण दिया है। भगवती सूत्रादि में त्रयस्रादि
७७ लव = १ मुहूर्त के आकार की अनेक ज्यामितीय आकृतियों का विवरण दिया है।
३७७३ उच्छ्वास = १ मुहूर्त " इसी प्रकार सूर्य प्रज्ञप्ति में भी विवरण मिलते हैं। चार प्रकार
३० मुहूर्त = १ अहोरात्र के प्रमाणों में द्रव्य प्रमाण को प्रदेश निष्पन्न और विभाग निष्पन्न
१५ अहारोत्र = १ पक्ष · रूप में लिया गया है। प्रदेश निष्पन्न प्रमाण अनन्त प्रकार का है
२ पक्ष
=१ मास - और विभाग निष्पन्न मात्र ५ प्रकार का है :-मान, उन्मान,
२ मास
= १ ऋतु . अवमान, गणिमा, प्रतिमान । गणिमा १ से लेकर १ करोड़ तक
=१ अयन की संख्या तक जाता है। मान क्रमशः धान्यमान और रस मान
२ अयन = १ संवत्सर 'प्रकार का है । क्षेत्र प्रमाण दो प्रकार का है : प्रदेश निष्पन्न और ५ संवत्सर = १ युग विभाग निष्पन्न । प्रदेश निष्पन्न असंख्य प्रकार का है। विभाग
८४ लाख वर्ष =१ पूर्वाग: निष्पन्न अंगुल से लेकर योजन तक जाता है
भावप्रमाण को अनेक प्रकार वाला बतलाया गया है। ६ अंगुल =१ पाद [अंगुल ३ प्रकार का है : आत्मांगल. षट्खण्डागम में उपराक्त तान प्रमाण : द्रव्य प्रमाण, क्षत्र प्रमाण
प्रमाणांगुल और उत्सेधांगुल एवं काल प्रमाण को भाव प्रमाण कहा गया है।'
निश्वास
८१ प्राण
३ ऋतु
१ ति० ५०,४.१८२.
२ गुप्ता, आर० सी०, (१९७५); ति० प० ग०, ६.५५-५६, ३ जैन, जे० एल०, (१९१८), पृ० १५४-१५५
पृ० ४६; दत्त (१९२६), पृ० १३२ -४ कापड़िया (१९३७)।
५ आर्हत दर्शन दीपिका, देखिये पृ०७८-८० ६ अनु० सू०; सू० १३३
७ कापड़िया (१९३७), पृ० xvii-xx, भूमिका । अनु० सू०, सू०.१३७; आर्हत दर्शन दीपिका (पृ० ५८७-६ षट्खण्डागम, पु० ३, १-२-५, "तिण्हं पि अधिगमो ५८८)।
भाव पमाणं ॥५॥"