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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक कालोबसमुद्र में सूर्योदय आदि की प्ररूपणा
सूत्र ६६९-१००१
जया णं पच्चत्थिमणं दिवसे भवइ, तया गं धायइसंडे जब पश्चिम में दिन होता है तब धातकीखण्ड द्वीप में मन्दर
दीवे मंदराणं पव्वयाणं उत्तरदाहिणणं राई भवइ? पर्वतों के उत्तर-दक्षिण में रात्रि होती है ? उ०- -हंता गोयमा ! जया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्व- उ०-हाँ गौतम ! जब धातकीखण्ड द्वीप में मन्दर पर्वतों
याणं पुरत्थिमे दिवसे भवइ-जाव-तया णं धायइसंडे के पूर्व दिन होता है-यावत्-तब धातकीखण्ड द्वीप में मन्दरदीवे मंदराणं पध्वयाणं उत्तर-दाहिणणं राई भवइ। पर्वतों से उत्तर-दक्षिण में रात्रि होती है । एवं एएणं अभिलावेणं णेयवं
इस प्रकार के प्रश्नोत्तर से सारे प्रश्नोत्तर जानने चाहिए। -भग. स. ५, उ. १, सु. २३-२५ कालोद समुद्दे सूरियोदयाई परूवण
कालोदसमुद्र में सूर्योदय आदि का प्ररूपण१०००. जहा लवणसनुद्दस्स वत्तव्वया भणिया,
१०००. जिस प्रकार लवणसमुद्र के सम्बन्ध में कहने योग्य कहातहा कालोदस्स वि भाणियव्वा,
उसी प्रकार कालोदसमुद्र के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। नवरं :–कालोदस्स नामं भाणियब्वं,
विशेष-(लवणसमुद्र के प्रश्नोत्तर सूत्रों में "लवणसमुद्र"
नाम के स्थान में "कालोदसमुद्र" कहना चाहिए) "कालोद" नाम -भग. स. ५, उ. १, सु. २६ कहना चाहिए। अब्भतर पुक्खरद्ध सूरिय-उदयाइ परूवणा- आभ्यन्तर पुष्क रार्ध में सूर्योदयादि का प्ररूपण१. ता अब्भंतर-पुक्खरखे गं सोवे सूरिया
१. आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध द्वीप में सूर्यउदीण-पाईणमुग्गच्छंति, पाईण-दाहिणमागच्छंति, ___उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) में उदय होकर (अग्निकोण)
पूर्व-दक्षिण में आते हुए दिखाई देते हैं। -जाव-पडीण-उदीणमुग्गच्छंति, उदीण-पाईणमागच्छति, -यावत्-पश्चिम उत्तर (वायव्यकोण) में उदय होकर
उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) में आते हुए दिखाई हैं। ता जया णं अब्भंतर-पुक्खरद्धे मंदराणं पन्वयाणं दाहिणड्ढे जब आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध के मन्दर पर्वत से दक्षिणार्द्ध में दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि दिवसे भवइ, दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में भी दिन होता है । जया णं उत्तरड्ढे दिवसे भवइ, तया णं अभिंतरपुक्खरद्धे जब उत्तरार्द्ध में दिन होता है तब आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध के मंदराणं पव्वयाणं पुरस्थिम-पच्चत्थिमे णं राई भवइ, मन्दर पर्वत से पूर्व-पश्चिम में रात्रि होती है। सेसं जहा जंबुद्दीवे दीवे तहेव-जाव-ओसप्पिणी,'
जिस प्रकार जम्बूद्वीप के आलापक कहे हैं उसी प्रकार
आभ्यन्तर पुष्कराद्ध के अवसर्पिणी पर्यन्त शेष आलापक कहने —सूरिय. पा. ८, सु. २६ चाहिए ।
१ (क) सूरिय. पा. ८, सु. २६ ।
(ख) चन्द. पा. ८. सु. २६ । (ग) जम्बु. बक्ख. ७, सु. १५० । २ (क) सूरिय. पा. ८, सू. २६ ।
(ख) चन्द. पा. ८, सु. २६ । ३ (क) प०--अभिंतर पुक्खरद्धे णं भंते ! सूरिया
उदीण-पाईणमुग्गच्छ पाईण-दाहिणमागच्छंति-जाव
पाईणउदीणमुग्गच्छ उदीण-पाईणमागच्छति ? उ०-हंता गोयमा ! अभिंतर पुक्खरद्धे सूरिया
उदीण-पाईणमुग्गच्छ, पाईण-दाहिणमागच्छंति-जाव-पादीण-उदीणमुग्गच्छ उदीण-पाईणमागच्छति, जहेब धायइसंडस्स वत्तब्बया भणिया, तहेव अभितरपुक्खरद्धस्स वि भाणियन्वा, नवर:-सब्वे अभिलावा जाणियब्वा-जाव- ।
-भग. स. ५, उ. १, सु. २७ (ख) चन्द. पा. ८, मु. २६ ।
(ग) जम्बु. वक्ख. ७, सु. १५० । * सूत्र संख्या १ से पुनः प्रारम्भ की गई है जिसे पाठक १००१ क्रमशः समझें ।