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लोक- प्रज्ञप्ति
उ०
उ०- गोयमा ! एवं जोयणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावण्णं च एगसट्टिभाए जोयणस्स आयाम विक्खभेणं । तिण्णि य जोयणसयसहस्साइं अट्टासहस्साई दोषिय अगासीए जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ते ।
पत्तेय सूरमण्डलस्स अन्तरं -
तिर्यक् लोक प्रत्येक सूर्यमण्डल का अन्तर
एवं खलु एएवं उबाएणं पचिसमा सुरिए तयातराओ मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणे संकममाणे पंत्र पंच जोयणाई पणतीसं च एगसट्ठि भाए जोयणस्स एगमेगे मण्डले विक्खंभवुद्धिं णिबुड्ढेमाणे णिव्वुड्ढेमाणे अट्ठारस अट्ठारस जोयगाई परिरयबुद्धि निमाणे निव्युद्देमाने सव्वमंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । - जंबु. वक्ख. ७, सु. १३२
३३. प० - सूरमण्डलस्स णं भंते ! सूरमण्डलस्स य केवइयं अबाहाए अन्तरे पण्णत्ते ?
-गोयमा ! सूरमण्डलस्स सूरमण्डलस्स य दो जोयणाइं अबाहाए अन्तरे पण्णत्ते ।
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सूत्र १०३२-१०३४
उ०- हे गौतम ! एक लाख छः सौ अड़तालीस योजन तथा बावन योजन के इगसठ भाग जितना आयाम - विष्कम्भ और तीन लाख अठारह हाजर दो सौ उन्नासी योजन की परिधि कही गई है।
इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य एक के बाद दूसरे मण्डल पर संक्रमण करता करता प्रत्येक मण्डल में पाँचपाँच योजन तथा पैंतीस योजन के इगसठ भाग जितनी विष्कम्भ (चौड़ाई में) हानि करता करता और परिधि में अठारह अठारह योजन की कमी करता करता सर्वाभ्यन्तर मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है।
प्रत्येक सूर्यमण्डलका अन्तर-
३२. प्र० ] भगवन्! एक सूर्यमण्डल से दूसरे सूर्यमण्डल का व्यवधान रहित कितना अन्तर कहा गया है ?
उ०- हे गौतम! एक सूर्यमण्डल से दूसरे सूर्यमंडल का व्यवधान रहित दो योजन का अन्तर कहा गया है ।
- जंबु. वक्ख. ७, सु. १२६
की हानि-वृद्धि-
मन्दरपाओ सूरियमण्डलाणमंतर मण्डले गईए मन्दरपर्वत से सूर्यमण्डलों का अन्तर और मण्डलों में गति हाणि बुद्धी३४. १. ५० - जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइपाए हाए सम्म्मंतरे सूरमण्डले पण ? उ०- गोयमा ! चोआलीसं जोयणसहस्साइं अट्ठ य वीसे जोयणसए अबाहाए सव्वन्धंतरे सूरमण्डले पण्णत्ते । २. प० - जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइ
याए अमाहाए सतराणंतरे सूरमण्डले पण ? उ०- गोमा ! चोआलीसं जोयणसहस्साइं अट्ठ य बावीसे जोयणसए अडयालीसं च एगसट्टिभागे जोयणस्स अवाहाए सत्यन्यंतरानंतरे सूरमण्डले पसे । ३. ५० - जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अवाहाए अभ्यंतर सच्चे सूरमण्डले पण्य ? उ० – गोयमा ! चोआलीस जोयणसहस्साइं अट्ठ य पणवी से जोयणसए पणतीसं एगसद्विभागे जोयणस्स अबाहाए अब्भंतर तच्चे सूरमण्डले पण्णत्ते ।
एवं खलु एएवं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तया
तरं मण्डलं संकममाणे संकममाणे दो दो जोयणाई अडयालीस च एगसट्टिभागे जोयणस्स अबाहाए युद्धं अभियमाणं अभिवमा सम्बवाहिर मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइति ।
३४ (१) प्र० - भगवन् ! जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से कितने व्यवहित] अन्तर पर सर्वान्वन्तर सूर्यमण्डल कहा गया है ?
उ०- हे गौतम! सर्वाम्यन्तर सूर्यमण्डल धम्मालीस हजा आठ सौ बीस योजन के अन्तर पर कहा गया है।
(२) प्र० - भगवन् ! जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से कितने व्यवहित अन्तर पर सर्वाभ्यन्तरानन्तर सूर्यमण्डल कहा गया है।
उ०- हे गौतम! सर्वाभ्यन्तरानन्तर मण्डल चम्मालीस हजार आठ सौ बावीस योजन और अड़तालीस योजन के इकसठ भाग जितने अन्तर पर कहा गया है।
(२) प्र० - भगवन् ! जम्बुद्वीप के मन्दरपर्वत से कितने व्यवहित अन्तर पर आभ्यन्तर तृतीय सूर्यमण्डल कहा गया है ?
उ०- हे गौतम | आभ्यन्तर तृतीय सूर्यमण्डल चम्मालीस हजार आठ सौ पच्चीस योजन और पैंतीस योजन के इकसठ भाग जितने अन्तर पर कहा गया है ।
इस क्रम से निकलता हुआ सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर संक्रमण करता करता प्रत्येक मण्डल की दूरी में दो दो योजन और अड़तालीस योजन के इकसठ भाग जितनी वृद्धि करता करता सर्ववा मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है।