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लोक- प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : अन्तरद्वीप वर्णन
कुस - विकुस - विसुद्ध - रुक्खमूला जाव- चिट्ठन्ति ।
६१५. गुरुदी तत्थ तत्थ बहवे चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो !
जहा से सुगंधर कलमसाल - विसिद्ध-हित- दुद्धरखे सारप-गुड-खंड-महुमेलिए, अतिरले परमन्ये होज्ज, उत्तम वण्णगंधमंते,
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रणो जहा या चक्कस्सि होम णिउहि पुरिसेहि सज्जिएहि उपसेअसिस इ ओ कसमस लिज्जित एवि, विपक्क सवष्क- मिउ-वसय सगालसित्थे, अणेगसालण ग-संजुत्ते,
अवाप सरकार अम-गंध-रस करिस जुत बलवी रियपरिणामे इंदियवलपुट्टिबद्धणे, खुप्पिवासमह पहाणंसकटिप- खंड -मच्छंडिय-उदगीर पमोयने सहसमय गर्भ हवेज्ज परमइट्ठगसंजुत्ते,
सहेव ते चितरसावि तुमगणा अगबहुविविहवीससा परि णयाए भोजनविहीए उववेदा,
कुकुस विद्धयमूला जाय-विट्ठन्ति ।
६१६. एगुरुयदीवे तत्थ तत्थ बहवे मणियंगा नाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ।
जहा से हारहार-बट्टग-म-कुण्डल- वामुसग हेमजाल-मणिजाल-कणगनालग मुग-उच्चपहाडिय एकावलि - कंठसुत्त-मंगरिम- उरत्थ- गेवेज्ज - सोणिसुत्तग-चूला - मणि-कणगतिलग फूल-सिद्धस्य कण्णवालि-ससिपूर-उसम
कलमंग-डि-हत्यमालक लवणोणारमालिता, चंद सूर-मालिता, हरिसय केयूर वलय- पालंब - अंगुलेज्जग-कंचीमेहला कलापपरग-पायजान-इंटिय- खिखिणि रयणोदजाल तिथगियवरणेउर-चलणमालिया, कणगणिगरमालिया, कंचणमणिरयणमत्तिवित्ता, भूगविधी बहुप्यारा,
सूत्र ६१४-६१६
उन वृक्षों के मूल कुश - डाभ, विकुश - बल्वजघास रहित हैं अतएव शुद्ध हैं ।
६१५. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुकद्वीप के अनेक स्थलों में 'चित्ररस' नाम के अनेक वृक्षों के समूह कहे गये हैं।
जिस प्रकार अविक्रित विशिष्ट दूध में रांधे हुए और शरद् ऋतु के पुत, गुड़, खांड या मधु से मिश्रित श्रेष्ठ सुगन्धित चावल । उत्तम वर्ण, गंध, रस युक्त परमान्न क्षीर ।
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अथवा - चक्रवर्ती के पाकविद्या विशारद रसोइए के बनाए हुए चकल्प से सिक्त कलमशाली भाप से पकाने पर कोमल एवं फूली हुई, अनेक प्रकार के पुष्प फल संयुक्त चावल की कणिका ।
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अथवा - एला आदि समस्त द्रव्यों से संस्कारित, श्रेष्ठ वर्ण, गंध, रस-स्वतं युक्त, यल-वीर्य रूप में परिणमित चक्षु आदि सभी इन्द्रियों को पुष्ट करने वाले तथा शक्ति बढ़ाने वाले क्षुधा, तृषा, शामक, पक्व एवं पवित्र गुड़ खांड या मिश्री मिश्रित, तीन वार छने हुए आटे से बनाये हुए, अत्यन्त प्रिय - उपयोगी द्रव्यों से संयुक्त मोदक होते हैं
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उसी प्रकार चित्ररस द्रुमगण भी अनेक प्रकार की स्वभाव सिद्ध भोजन विधि से युक्त होते हैं ।
उन वृक्षों के मूल कुश = डाभ, विकुश = बल्वजघास रहित है अतएव विशुद्ध है।
६१६. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुकद्वीप के अनेक स्थानों में 'मणिअंग' नाम के अनेक वृक्षों के समूह कहे गये हैं।
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जिस प्रकार ( १ ) हार - अठारह लड़ियों वाला, (२) अर्धहारनी लड़ियों वाला, (२) वेष्टनक कानों के (४) मुकुट, (५) कुण्डल, (६) वामोत्तक, (७) हेमजाल, (८) मणिजाल (२) कनकजाल, (१०) सुवर्णसूत्र, (११) उचितकटक, (१२) क्षुद्रक, (१३) एकावलि यू (१४) मकराकारहार, (१५) ग्रैवेयक = गले में पहनने का आभरण, (१६) कटिसूत्र (१७) चूडामणि, (१८) स्वर्णतिलक, (१२) पुष्पक, (२०) सिद्धार्थक, (२१) कर्णवालि, (२२) चन्द्रचक्र, (२३) सूर्य पत्र (२४) वृम पत्र (२५) तलभंग, (२६) त्रुटितभुजबंध, (२७) हस्तमालक, (२०) बल, (२२) दीनारमालक, (३०) चन्द्रमालक, (३१) सूर्यमालक, (३२) हर्षक, (३३) केयूर, (३४) वलय = कंकण, (३५) प्रालम्ब = लम्बी शृङ्खला अथवा झूमका, (२६) अंगुलेवक अंगुठी, (१७) कांबीला स्वर्णमयकटिसूत्र, (३८) कलापप्रतरक, (३९) पायल, (४०) घण्टिका, ( ४१ ) खितिणी छोटी पेटिका (४२) रत्नोपजाल, (४३) क्षुद्रिका, (४४) श्रेष्ठनुपुर, (४५) चरणमालिका (४६) कनकनिकर मालिका पैरों में पहनने के सोने के कड़े, स्वर्ण-मणि रत्नजड़ित चित्रयुक्त अनेक प्रकार के आभूषण होते हैं ।
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