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________________ मूत्र ६१२-६१४ तिर्यक् लोक : अन्तरद्वीप वर्णन गणितानुयोग ३३३ जहा से संझाविरागसमए नवणिहिपतिणो दीविया चक्क- जिस प्रकार संध्या समय की लालिमा, चक्रवर्ती के मणि-रत्न वालविंदे पभूयवट्टिपलित्ताहिं धणिउज्जालियतिमिरमद्दए, जटित महर्घ्य स्वर्णमय विचित्र दण्डदीपिका चक्रवाल की स्नेहसिक्त कणगणिगरकुसुमितपालियातयवणप्पगासो कंचणमणिरयण- (तेल तृप्त) अधिक बढ़ी हुई एक साथ प्रज्वलित अनेक बत्तियों का विमल-महरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंडाहिं दीवियाहिं सहसा अन्धकार नाशक अति उज्ज्वल प्रकाश है, स्वर्णमय पारिजात पुष्पपज्जलिऊसविय-णिद्धतेय-दिप्पंत-विमलगहगण--समप्पहाहिं वन का प्रकाश, दैदीप्यमान ग्रहगण की विमल प्रभा, और वितिमिरकर-सूरपसरिउल्लोयचिल्लिाहि जावुज्जलपहसियाभि- तिमिरनाशक सूर्य की सुशोभित एवं मनोहर किरणों का प्रकाश रामाहिं सोभेमाणा, होता हैतहेव ते दीवसिहावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरि- -उसी प्रकार दीपशिखा नामक द्र मगण भी अनेक प्रकार के णामाए उज्जोयविधीए उववेदा फलेहिं पुण्णा विसट्टन्ति, स्वभावसिद्ध प्रकाशयुक्त फलों से परिपूर्ण विकसित हैं। कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूला-जाव-चिट्ठन्ति । उन वृक्षों के मूल कुश-डाभ, विकुश-बल्बजघास रहित हैं अतएव शुद्ध हैं। ६१३. एगुरुयदीवे तत्थ तत्थ बहवे जोतिसिहा णाम दुमगणा पण्णत्ता ६१३. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुक द्वीप के अनेक स्थानों में समणाउसो! 'ज्योतिशिखा' नाम के अनेक वृक्ष-समूह कहे गये हैं । जहा से अचिग्गयसरय-सूरमंडल-पडंत-उक्कासहस्स- जिस प्रकार शरदऋतु के उदीयमान सूर्य का प्रकाश, उल्का दिपंत-विज्जज्जालहयवहनिम-जलियनिद्धतधोय-तत्ततव- सहस्र का उज्ज्वल तेज, बिजलियों की चमक, प्रज्वलित निर्धम णिज्ज-किसुयासोयजावासुयणकुसुम-विमलियपुञ्जमणिरयण- अग्नि की ज्वालायें, तपाये हुए स्वर्ण का वर्ण, विकसित किशक किरणजच्चहि-गुलुयणिगररुवाइरेगरूवा, एवं जवाकुसुम पुष्पसमूह की प्रभा, मणि-रत्नों का किरण पुज, और हिंगुल की राशि होती हैतहेव ते जोतिसिहावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससा- उसी प्रकार ज्योतिशिखा नाम के छमगण भी अनेक प्रकार परिणयाए उज्जोयविहीए उववेदा सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदाय- के स्वभावसिद्ध शुभ, मंद, मंदातप प्रकाशों से कूट-शिखर के वलेस्सा कुडाय इव ठाणठिया अन्नमन्नसमोगादाहिं लेस्साहिं समान एक (अपने-अपने) स्थान पर स्थित; उन सभी वृक्षों के साए पभाए सपदेसे सव्व भो समंता ओभासंति उज्जोवेति प्रकाश एक दूसरे से समन्वित होकर अपने-अपने प्रदेश में चारों पभासेंति, ओर अबभासित; उद्योतित एवं प्रभासित होते हैं। कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूला-जाव-चिट्ठन्ति । उन वृक्षों के मूल कुश=डाभ, विकुश बल्बजघास रहित हैं अतएव विशुद्ध हैं। ६१४. एगरुयदीवे तत्थ तत्थ बहवे चित्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता ६१४. हे आयुष्मन् श्रमण ! एको रुकद्वीप के अनेक स्थानों में समणाउसो! 'चित्रांग' नाम के वृक्ष-समूह कहे गये है। जहा से पेच्छाघरे विचित्ते रम्मे वरकुसुमदाममालुज्जले, जिस प्रकार प्रेक्षागृह =नाट्यशाला कुशल शिल्पियों द्वारा भासतमक्कपुष्कपूजोवयारकलिए, विरल्लिविचित्तमल्लसिरि- अनेक प्रकार के चित्रों से रमणीय, श्रेष्ठ पूष्पमालाओं से देदीप्यमान दाममल्लसिरिसमुदयप्पगब्भे गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमेण विकसित मनोहर विरल-विचित्र पुष्पमालाओं से सुशोभित किया मल्लेण छेयसिप्पियं विभारतिएण सम्वतो चेव समणुबद्धे जाता है । ग्रन्थिम=गूंथकर, वेष्टिम=पुष्प पर पुष्प लगाकर पविरललवंतविप्पइट्रेहिं पंचवणेहिं कुसुमदामेहि सोभमाणेहि शिखर सदृश या मुकुट सदृश गंथकर, पूरिम-लघछिद्र में पुष्प सोभमाणे वणमालतग्गए चेव दिप्पमाणे, पूरकर, संघातिम=एक पुष्प की नाल में दूसरे पुष्प की नार जोड़कर बनाई हुई पाँच वर्ण की पुष्पमालाये कहीं-कहीं । अन्तर पर कहीं-कहीं अधिक अन्तर पर लगाने से सजिन है तथा उसके द्वारा वनमाला-बन्दन मालाओं से होता है। तदेव ते चित्तंगयावि मगणा अणेगबहुविविहवीससापरिण- उसी प्रकार चित्रांग नाम के द्र मगण भी याए मल्लविहीए उववेया, विधियों से युक्त होते हैं ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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