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________________ घटाने के लिए स्थानमान संकेतना (Place-value Notation for Subtraction) यह एक ऐसा अनुरेखण है जिससे यह ज्ञात होता है कि इसी प्रकार स्थानमान संकेतना की ओर जैनाचार्य बढ़े होंगे। घटाने के लिए रिण शब्द अथवा रि संकेत का उपयोग होता था । हस्तलिपियों में इसे O] रूप में लिया है। इस प्रकार किसी राशि के असंख्यात में से १ घटाना हो तो इस रूप में 0-0लिखा जाता था, किन्तु बाद में इसे सरल व रूप में 'वं छपाया जाने लगा । हम छापे की अर्थसंदृष्टि से ही घटाने के लिए स्थानमान संकेतना समझायेंगे । यहाँ ल लक्ष है। जिसे ५ ४ ३ द्वारा गुणित किया गया है राशि ल X५X४X३ ल X५X४X३ - १ल ल × ५×××३ - ल X५ ल X५X४X३ –ल X५X४. ल X ५X४ X ३ ल X ३ ल X ५X ४ X ३ – ल X४X३ ल X ५ × ४ X ३ – ल X ५X३ X ३ - २ल X ४X३ संकेतना ल। ५५४३ १० ल५ | ४ | ३ ल।५।४।३ ७ गो० खा० जी०, भाग २, पृ० ६२८- ६४८ Method of Finite Difference. १० वि० प०, भाग १, २०६४ १ ल ल|५|४|३ ३ ५।४।३ १ १ ल।५।४।३ १ ल|५|४|३ २७ ल । ५ । ४ । ३ १७ ल ।४।३ ल×××३ – १२ उपर्युक्त से प्रकट है कि उपरोक्त व्यवहार तिलोयपण्णत्त में भी प्रयुक्त होने के कारण पर्याप्त प्राचीन होना चाहिए। 2 इसका प्रयोग गोम्मटसार की जीव तत्व प्रदीपिका तथा कर्णाट वृत्ति में अत्यधिक हुआ है। रिण के लिए अनेक चिह्न प्रचलित रहे हैं, यथा : + रि अथवा रिण । १ अ० [सं० गो० पृ० २०-२१ ३. देखिये हस्तलिपि, अ०सं०गो० जो मन्दिरों में गो०सा० जी० आदि के साथ उपलब्ध है जिसमें सम्यक्ज्ञान चन्द्रिका टीका, पं० टोडरमल कृत भी है । गणितानुयोग प्रस्तावना | ६७ हस्तलिपियों में चिह्न का प्रयोग विशेषाधिक मिलता है। ऐसा लगता है कि ब्राह्मी के चिह्न : जो इ के लिए है वह • में बदल गया, - र के लिए प्रयुक्त हुआ ) जो नीचे की ओर आया है वह ण के लिए हो सकता है। धन के लिए धण का उपयोग भी हुआ है। इसके साथ नहीं लगाते हैं। इसके लिए केवल अथवा ] का उपयोग करते रहे हैं। काकपद + चिह्न का उपयोग ऋण के लिए बाली हस्तलिपि में भी हुआ है।" fer (Series or Progressions) सूर्यप्रज्ञप्ति में पराशि की सहायता से विभिन्न ज्योतिष्कों की युति, संपात आदि का काल एवं अन्य ज्योतिषी गणनाएँ करने हेतु धणियों की रचना हुई प्रतीत होती है । चन्द्र प्रज्ञप्ति प्रभृति ग्रन्थों तथा तिलोपपन्नति में भी वराशि के उपयोग से णि रचना हुई हैं जिनमें समान्तर और गुणोत्तर श्रेणियाँ प्राप्त होती हैं । गोम्मटसार में ध्रुवभागहार द्वारा भी इसी प्रकार की गुणोत्तर श्रेणियाँ प्राप्त की गई हैं। चीन में प्रायः ७वीं सदी से इस प्रकार की राशि जिसे लिंग कहते थे, ज्योतिष गणित में उपयोग हुआ है। वहीं फिंग शब्द का भी उपयोग हुआ है जिसे तैरनेवाला अन्तर कहा गया है । 8 यही सम्भवतः बाद में परिमित: अन्तर - विधि रूप में न्यूटन आदि ने विकसित किया । उपर्युक्त के सिवाय तिलोयपण्णत्ति में निम्नलिखित प्रकार के सूत्र प्राप्त हुए हैं : मानलो श्रेणि योग यो, प्रचय प्र, आदि आ और गच्छ ग है और इष्ट संख्या इ हो तो 10 यो = [ग—इ)प्र+(इ—१)प्र+(आ. २)] इष्ट संख्या को प्रथम, द्वितीय या अन्य कोई श्रेणि माना जा सकता है । २ ४ ५ ६ समान्तर श्रेणि हेतु सूत्र 11 =[{('=')'+('=')}=+^] यो ति० प०, भाग २, पृ० ६०६ दत्त एवं सिंह (१९२५) भाग १, पृ० १४-१५ सू० प्र०, भाग २, पृ० ६६-७४ ति० प०, गाथा ७, १२२, २२२ नीम एवं लिंग (१९५९), पृ० ४८, ४९, १२३, १२४ ८ ११ वही, अगली गाथाएँ, २७०
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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