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________________ सूत्र २१८-२२६ 'बलिस्स णं वइरोयदिस्स वइरोयणरण्णो रूअगंदे उपायदबाव जोयणसए विश्णं ।" बलिस णं बदरोयणिवस सोमस्स एवं चैव । जहा चमरस्स लोगपालाणं तं चैव बलिस्स वि । अधोलोक धरणस्त गं नागकुमारिदस्स नायकुमार गो धरणायमे उपायपव्वए दसजोयणसयाई उद्धं उच्चतेणं, दसगाउयसयाई उच्येणं मूले दराजोगाई विश्वंभे प धरणस्स णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररणो कालवालस्स महारण्णो महाकालप्पभे उप्पायपव्वए जोयणसयाई उद्धं उच्च एवं जाय-संवार एवं भूवादस्व वि एवं लोगपालाण वि । से जहा धरमस्स एवं जाव-वणिकुमाराणं सोपालाव भाणियत्वं । सव्वेंस उपायपव्वया भाणियव्वा सरिसणामा । दोहं भवणवासीणं विसमयाए हेऊ२११. १० दो ! असुरकुमारा एवंस असुरकुमारावासंसि असुरकुमार देवत्ताए उवबन्ना । तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवेपासादीने अभिवे परूिये, एगे असुर कुमारे देवे से मोपासादोए नो दरिनो अभि रूवे नो पडिवे । से कहमेयं भंते ! एवं ? उ० गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुबिहा पन्नत्ता तं जहा१. वेउब्वियसरीरा य २. अवे उब्वियसरीरा य । तत्थ णं जे से वेउव्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं पासादीए जाव पडिरूवे । गणानुयोग वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलिका रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत है । 'उस पर्वत के ' मूल का विष्कंभ दस सौ बाईस 'एक हजार बाईस' योजन कहा गया है । १०७ वैरोचनेन्द्र बलि के सोम लोकपाल का 'उत्पात पर्वत' भी इसीप्रकार है अर्थात् चमर के 'लोकपालों के उत्पात पर्वत' जैसे है, वैसे ही बलि के 'लोकपालों के उत्पात पर्वत' हैं । - ठाणं १०, सु० ७२८ वाले उत्पात पर्वत कहने चाहिए । नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण का धरणभ उत्पात पर्वत दस सौ- 'एक हजार' योजन ऊपर की ओर उन्नत है । 'उसका'' उद्वेध 'भूमि में नीचे की ओर' दस सौं- 'एक हजार' गाउ'कोश' का है । 'उसके' मूल का विष्कंभ दस सौ - 'एक हजार' योजन का कहा गया है। नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के कालवाल 'लोकपाल'' महाराज का महाकालप्रभ उत्पात पर्वत सौ योजन ऊपरी ओर उन्नत है । इसी प्रकार - यावत् - संखवाल के 'उत्पात पर्वत' हैं । इसी प्रकार 'धरण के समान' भूतानन्द के 'उत्पात पर्वत' हैं । इसी प्रकार 'धरण के लोकपालों के समान भूतानन्द के लोकपालों के 'उत्पात पर्वत' हैं । धरण के 'तथा उसके लोकपालों के उत्पात पर्वत" जैसे हैं। वैसे ही - यावत् - स्तनितकुमारों के और 'उनके' लोकपालों के हैं । सभी 'इन्द्रों के और लोकपालों' के नाम के सदृश 'नाम दो भवनवासी देवों की विषमता का हेतु २१६. प्र० भगवन्! एक असूरकुमारावास में दो अनुकुमार देव उत्पन्न होते है, उनमें एक असुरकुमार देव प्रसन्न, दर्शनीय, सुन्दर एवं मनोहर होता है और एक असुरकुमार देव न प्रसन्न, न दर्शनीय, न सुन्दर और न मनोहर होता है। भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? उ०- गौतम ! असुरकुमार देव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा - १. विकुर्वित ( वैक्रियकृत) शरीर वाले और २. अविकुर्वित शरीरवाले । उनमें जो विकुर्वित शरीर वाला असुरकुमार देव है वह प्रसन्न - यावत् - मनोहर होता है । तत्थ णं जे से अवेउध्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं नो पासादीए - जाव-नो पडिरूवे । १ वैरोचनेन्द्र बलिके रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत का प्रमाण असुरेन्द्र चमर के तिगिच्छकूट उत्पात पर्वत के समान है । उनमें जो अविकुवित शरीर वाला असुरकुमार देव है, वह न प्रसन्न - यावत्-न मनोहर होता है ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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