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________________ १०८ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र २१६-२२१ प० से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ तत्थ णं जे से वेउम्विय- प्र०-भगवन् ! किस अभिप्राय से इस प्रकार कहा जाता हैसरीरे तं चैव-जाव-नो पडिस्वे ? उनमें जो विकुर्वित शरीर वाला है, उसी प्रकार-यावत् मनोहर नहीं होता है ? उ० गोयमा ! से जहानामए इहं मणुयलोगंसि दुवे पुरिसा उ०-गौतम ! जिस प्रकार इस मनुष्य लोक में दो पुरुष होते भवंति–एगे पुरिसे अलंकियविभूसिए, एगे पुरिसे अण- हैं। उनमें एक अलंकृत विभूषित होता है और एक अलंकृत लंकियविभूसिए, विभूषित नहीं होता है। एएसिणं गोयमा ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे पासा- गौतम ! इन दो पुरुषों में कौन पुरुष प्रसन्न-यावत्दीए-जाव-पडिरूवे ? कयरे पुरिसे नो पासादीए-जाव-नो मनोहर होता है ? पडिरूवे ? जे वा से पुरिसे अलंकियविभूसिए ? जो पुरुष अलंकृत विभूषित होता है वह ? जे वा से पुरिसे अणलंकियऽविभूसिए ? जो पुरुष अलंकृत विभूषित नहीं होता है वह ? भगवं! तत्थ णं जे से पुरिसे अलंकिय-विभूसिए से भगवन् ! उनमें जो पुरुष अलंकृत विभूषित होता है वह णं पुरिसे पासादीए-जाव-पडिरूवे । प्रसन्न-यावत् –मनोहर होता है । तत्थ णं जे से पुरिसे अणलंकियऽविभूसिए से णं पुरिसे उनमें जो पुरुष अलंकृत विभूषित नहीं होता है वह प्रसन्ननो पासादीए-जाव-नो पडिरूवे । यावत्-मनोहर नहीं होता है। प० दो भते ! नागकुमारा देवा एगंसि नागकुमारावासंसि प्र०-भगवन् ! एक नागकुमारावास में दो नागकुमार देव ___ नागकुमारदेवताए उववन्ना-जाव-से कहमेयं भंते ! एवं? उत्पन्न होते हैं यावत्-भगवन् ! किस कारण से इस प्रकार कहा जाता है ? उ० एवं चेव । एवं-जाव-धणियकुमारा। उ.-इसी प्रकार 'पहले के समान' है। इसी प्रकार-यावत् -भग० स०१८ उ० ५, सु० १-२ स्तनितकुमार पर्यंत जानना चाहिये । वाउकुमारा चउविहा वायुकुमारों के चार प्रकार२२०. चउव्विहा वाउकुमारा पण्णत्ता, तं जहा-. २२. वायुकुमार चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. काले, २. महाकाले, १. काल, २. महाकाल, ३. वेलवे, ४. पभंजणे। ३. वेलंब, ४. प्रभंजन। -ठाणं ४ उ० १, सु० २५६ छप्पण्णाओ दिसाकुमारीओ छप्पन दिशाकुमारियाँअहोलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ- अधोलोक में रहने वाली आठ दिशाकुमारियाँ२२१. अहोलोगवत्थब्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ सहि २२१. अधोलोक में रहने वाली आठ महादिशाकुमारियाँ ‘गजदंत सएहि कूडेहि, सरहिं भवणेह, सएहि सएहि पासायवडेंसएहि, गिरि के' अपने-अपने कूटों पर अपने-अपने भवनों में एवं पत्तेयं पत्तेयं चउहि सामाणियसाहस्सीहिं, चहि महत्तरियाहिं अपने-अपने प्रासादावतंसकों 'क्रीड़ावासो' में प्रत्येक दिशाकुमारी सपरिवाराहि, सहि अणिएहि, सतहि अणियाहिवई हिं, चार-चार हजार सामानिक देवों से चार-चार सपरिवार महत्तरिसोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सोहि अणेहि य बहूहिं भवणवह- काओं 'प्रतिहारिकाओं' से, सात-सात अनिका 'सेनाओं' से, सातवाणमंतरेहि देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिवुडामो महयाहय- सात अनिकाधिपतियों 'सेनानायकों' से, सोलह-सोलह हजार आत्म नक्षक देवों से और अन्य अनेक भवनपति, वाणव्यंतर देव-देवियों से घिरी हुई महान् नृत्य-गीत-वाद्य करती हुई-यावत् –भोगोप १ इस सूत्र में वायुकुमार चार प्रकार के कहे गये हैं किन्तु “वेलंब" दक्षिण दिशा के इन्द्र का नाम है और "प्रभंजन" उत्तर दिशा के इन्द्र का नाम है। शेष दो नाम "काल" और "महाकाल" वेलंब और प्रभंजन के लोकपालों के नाम है ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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