________________
४८४
लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : सूर्य वर्णन
सूत्र ६६७-६६८
९.५०-तं भंते ! कि सविसए ओभासेइ ? अविसए ओभा- () प्र०-भगवन् ! क्या वह सूर्य स्वविषय को अवभासित सेइ?
करता है ? या अविषय को अवभासित करता है ? उ०—गोयमा ! सविसए ओभासेइ नो अविसए। उ०-हे गौतम ! वह स्वविषय को ही अवभासित करता है
अविषय को अवभासित नहीं करता है । १०. ५०-तं भंते ! कि आणटिव ओभासेइ ? अणाणपुदिव (१०) प्र०-भगवन् ! क्या वह सूर्य क्रम से अवभासित ओभासेइ ?
करता है? या बिना क्रम के अवभासित करता है ? उ०-गोयमा ! आणुपुटिव ओभासेइ णो अणाणुपुर्दिव उ.-हे गौतम ! वह क्रम से अवभासित करता है, बिना ओभासेइ।
क्रम के अवभासित नहीं करता है। ११. ५०-तं भंते ! कइदिसि ओभासेइ ?
(११) प्र०-भगवन् ! वह सूर्य किस दिशा को अवभासित
करता है? उ०-गोयमा ! नियमा छद्दिसि ।
उ०-हे गौतम ! वह नियमित छहों दिशाओं को अव
भासित करता है। एवं (११) २२ उज्जोवेइ, (११) ३४ तवेइ (११) इसी प्रकार वह (११)२२ उद्योतित करता है (११)३३ ४४ पभासेइ-जाव-नियमा छद्दिसि ।' तपाता है—यावत्-वह नियमतः छहों दिशाओं को (११)४४
प्रभासित करता है। ४५. ५०-से नणं भंते ! सन्वंति सव्वावंति फुसमाणकाल (४५) प्र०-भगवन् ! क्या वह सूर्य स्पर्शकाल के समय
समयंसि जावइयं खेत्तं फुसइ तावइयं फुसमाणे पुढे जितने क्षेत्र को स्पर्श करता है उतने सारे क्षेत्र को सब ओर से त्ति वत्तव्वं सिया ?
स्पर्श करता हुआ स्पृष्ट कहा जाता है ? उ०-हंता गोयमा ! सव्वंति सव्वावंति फुसमाणकाल उ.-हे गौतम ! स्पर्शकाल के समय जितने क्षेत्र को स्पर्श
समयंसि जावइयं खेत्तं फुसइ तावइयं फुसमाणे पुढे करता है उतने सारे क्षेत्र को सब ओर से स्पर्श करता हुआ त्ति वत्तव्वं सिया।
स्पृष्ट कहा जाता है। ४६. ५०-तं भंते ! किं पुट्ठफुसइ ? अपुट्टफुसइ ?
(४६) प्र०-भगवन् ! क्या वह सूर्य स्पृष्ट क्षेत्र को स्पर्श
करता है ? या अस्पृष्ट क्षेत्र को स्पर्श करता है ? उ०-गोयमा ! पुटु फुसइ नो अपुढे ।
उ०-हे गौतम ! स्पृष्ट क्षेत्र को स्पर्श करता है।
अस्पृष्ट क्षेत्र को स्पर्श नहीं करता है। ४७-५६-जाव
-- यावत् – (४७-५६)। ५७. प०-तं भंते ! कइदिसि फुसइ?
५७. प्र०-भगवन् ! वह किस दिशा को स्पर्श करता है ? ___ उ०-गोयमा ! नियमा छद्दिसि फुसइ ।
उ०-हे गौतम ! वह नियमित छहों दिशाओं को स्पर्श -भग. स. १, उ. ६, सु. १-४ करता है। लवणसमुद्दे सूरिय-उदयाइ परूवणा--
लवणसमुद्र में सूर्योदयादि का प्ररूपण६६८. प०-लवणे णं भते ? समुद्दे सूरिया
६६८. प्र०-हे भगवन् ! लवणसमृद्र में सूर्यउदीण-पाईणमुग्गच्छ दाहिण-दाहिणमागच्छंति ? ईशान कोण में उदय होकर अग्निकोण में अस्त होते हैं ? पाईण-दाहिणमुग्गच्छ दाहिण-पाईणमागच्छंति ? अग्निकोण में उदय होकर नैऋत्यकोण में अस्त होते हैं ? दाहिण-पाईणमुग्गच्छ पाईण-उदीणमागच्छति ? नैऋत्यकोण में उदय होकर वायव्यकोण में अस्त होते हैं ? पाईण-उदीणमुग्गच्छ उदीण-पाईणमागच्छंति ?
वायव्यकोण में उदय होकर ईशानकोण में अस्त होते हैं ?
१
जम्बु. वक्ख. ७. सु. १३७ ।