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________________ सूत्र १०६६-११०१ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों का आभ्यन्तरादि संचरण गणितानुयोग ६२१ ता एएसि गं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, (घ) इन अट्ठाईस नक्षत्रों मेंतत्थ जे ते णक्खत्ता उभयंभागा दिवड्ड खेत्ता, जो नक्षत्र (चन्द्र के साथ) प्रथम दिन के प्रारम्भ से दूसरे पणयालीसं मुहुत्ता पण्णत्ता, ते णं छ, तं जहा- दिन के सायंकाल तक डेढ़ क्षेत्र में पैंतालीस मुहूर्त पर्यन्त योग १. उत्तरापोटुवया, २. रोहिणी, ३. पुणब्वस, करने वाले हैं, वे छह हैं, यथा-(१) उत्तराभाद्रपद, (२) रोहिणी, ४. उत्तराफग्गुणी, ५. विसाहा, ६. उत्तरासाढा।' (३) पुनर्वसु, (४) उत्तराफाल्गुनी, (५) विशाखा, (६) उत्तरा -सूरिय. पा.१०, पाहु. ३, सु. ३५ षाढ़ा । णक्खत्ताणं अब्भतराइ चारं नक्षत्रों का आभ्यन्तरादि संचरण - ११००. १.५०-ता जंबुद्दीवे णं दीवे कयरे गक्खत्ते सव्वन्भंतरिल्लं १००. प्र०-(क) जम्बूद्वीप द्वीप में कौनसा नक्षत्र सर्वाभ्यन्तर चारं चरइ ? मण्डल में गति करता है ? २. ५०–कयरे णक्खत्ते सव्वबाहिरिल्लं चार चरइ ? (ख) जम्बूद्वीप द्वीप में कौनसा नक्षत्र सर्वबाह्य मण्डल में गति करता है ? ३. ५०–कयरे णक्खत्ते सव्वुवरिल्लं चारं चरइ ? (ग) जम्बूद्वीप द्वीप में कौनसा नक्षत्र सर्वोपरि गति करता है ? ४. ५०–कयरे णक्खत्ते सब्वहेछिल्लं चारं चरइ ? (घ) जम्बूद्वीप द्वीप में कौनसा नक्षत्र सबसे नीचे गति करता है ? १. उ०-अभिई णक्खत्ते सव्वब्भंतरिल्लं चारं चरइ ।' उ०-(क) अभिजित् नक्षत्र सर्वाभ्यन्तर मण्डल में गति करता है। २. उ०-मूले णक्खत्ते सम्बबाहिरिल्ल चार चरइ ।' (ख) मूल नक्षत्र सर्व बाह्य मण्डल में गति करता है । ३. उ०—साई णक्खत्ते सव्वुवरिल्लं चारं चरइ ।। (ग) स्वाती नक्षत्र सर्वोपरि गति करता है । ४. उ०-भरणी णक्खत्ते सव्वहेटिल्ल चार चरइ ।। (घ) भरणी नक्षत्र सबसे नीचे गति करता है। -सूरिय. पा. १८, सु. ६३ णक्खत्ताण चन्देण जोगं नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग१०१. (क) प०-ता एएसि णं छप्पणाए णक्खत्ताणं-किसया १०१. प्र०.-- (क) ये छप्पन नक्षत्र क्या प्रातःकाल चन्द्र के साथ पादो चंदेण सद्धि जोगं जोएंति ? योग करते हैं ? (ख) १०–ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं-कि सया (ख) ये छप्पन नक्षत्र क्या सदा सायंकाल चन्द्र के साथ साय चंदेण सद्धि जोगं जोएंति ? योग करते हैं ? १ चंद० पा० १० सु० ३५ २ "सर्वाभ्यन्तरं सर्वेभ्यो मण्डलेभ्योऽभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तरः अनेन द्वितीयादि मण्डल चार प्युदासः" "यद्यपि सर्वाभ्यन्तर मण्डल चारीण्य भिजिदादिद्वादशनक्षत्राण्यभिहितानि, तथापीदं शेषेकादशनक्षत्रापेक्षया मेरुदिशि स्थितं सत चारं चरतीति सर्वाभ्यन्तरचारीत्युक्तम्" । ३ "सर्व बाह्य-सर्वतो नक्षत्रमण्डलिकाया बहिश्चारं चरति" । "यद्यपि पंचदशमण्डलाबहिश्चारीणि मृगशिरः प्रभृतीनि षड् नक्षत्राणि, पूर्वाषाढोत्तराषाढयोश्चतुर्णा तारकाणां मध्ये केंदच तारे उक्तानि, तथाप्येतदपर बहिश्चारि नक्षत्रापेक्षया लवणदिशि स्थितं सच्चारं चरतीति सर्वबहिश्चारीत्युक्तम ।" ४ (क) "दशोत्तरशतयोजनरूपे ज्योतिश्चक्र बाहल्ये यो नक्षत्राणां क्षेत्र विभागश्चतुर्योजन प्रमाणस्तदपेक्षयोक्त नक्षत्रयोः क्रमेणाधस्त नोपरितनभागो ज्ञयो, । इस टिप्पण में उद्धृत उद्धरण जम्बु. वक्ख. ७, सु. १६५ टीका के हैं । (ख) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के सूत्र १६५ के समान यह सूर्य प्रज्ञप्ति का सूत्र भी है। (ग) जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १६६ । (घ) चंद. पा. १८ सु.६३ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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