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________________ सूत्र १३४-१३५ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १५६ उच्चत्तेण, देसूणाई दो जायणाई आयाम-विक्खंभेणं, अब्भुगय- योजन के लम्बे-चौड़े हैं, अपनी ऊँचाई से आकाश को स्पर्श करते मूसिय० भूमिभागा, उल्लोया, पउमासणाई, उरि मंगलगा, हैं, समतल भूमिभाग है, उल्लोक, पद्मासन, ऊपर मंगल द्रव्य, झया, छत्तातिछत्ता। ध्वजायें, छत्रातिछत्र इत्यादि वर्णन पहले किये गये वर्णन के जैसा -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३६ ही समझना चाहिये । विजयदेवस्स सुहम्मा सभा वण्णओ विजयदेव की सुधर्मा सभा का वर्णन-१३५. तस्स णं मूल पासायवडेंसगस्स उनर-पुरत्थिमे णं-एत्थ णं १३५. इस मुख्य प्रासादावतसक की उत्तर-पूर्व दिशा ईशानकोण विजयस्स देवस्स सभा सुहम्मा पण्णत्ता। अद्धतेरस जोयणाई में विजयदेव की सुधर्मा सभा कही गई है, यह सभा साढ़े-बारह आपामेणं छ सक्कोसाई जोयणाई विक्खंभेणं, णव जोयणाई योजन की लम्बी, कोसाधिक छह योजन (सवा छह योजन) की उड्ढं उच्चतेणं। चौड़ी और ऊंचाई में यह नौ योजन की ऊंची है। अणेगखंभसयसंनिविट्ठा, अब्भुग्गयसुकयवइरवेदिया, तोरण- (यह) अनेक सैकड़ों खम्भों से सन्निविष्ट है, अच्छी तरह से वररइयसाल भंजिया, सुसिलिट्ठ, विसिट्ठ-लट्ठ-संठिय-पसत्थ बनी हुई वेदिका से युक्त है, जिसके श्रेष्ठ तोरण (मुख्य द्वार) पर वेरुलिय-विमलखंभा, णाणामणि-कणग-रयण-खइय-उज्जल- (शोभानिमित्त) शाल भंजिकायें (काष्ठ से बनी पुत्तलिकायें) बनी बहु-सम-सुविभत्त-चित्तरमणिज्ज-कुट्टिमतला, ईहामिय-उसभ- हुई हैं, जिसके स्तम्भ अति सुघड़तापूर्वक लेप (पलस्तर) किये तुरग णर-मगर-विहग-वालग-किण्णर-रुरु-सरभ-चमर-कुजर- गये और विमल वैड्यं मणियों से खचित हैं, जिसका भूमिभाग वणलय-पउमलय-भत्तिचित्ता, थंभुग्गय वइरवेइया परिगया- (फर्श) अनेक प्रकार की मणियों, स्वर्ण और रत्नों से खचित है, भिरामा, विज्जाहर जमल-जुयलजंतजुताबिव, अच्चिसहस्स- अर्थात् जिसके फर्श में मणिरत्न आदि जड़े हुए हैं, जिससे बड़ा मालणीया, रुबगसहस्स कलिया भिसमाणी, भिभिसमाणी, ही उज्ज्वल समतल सुविभक्त और चित्ताकर्षक है, ईहामृग, वृषभ, चक्खुलोयणलेसा, सुहफासा, सस्सिरीयरूवा । अश्व, मनुष्य, मगर, पक्षो, सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ, अष्टापद, चमरीगाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्रों से चित्रित है, स्तम्भों के ऊपर वज्र की बनी हुई वेदिकाओं से अत्यन्त सुहावनी प्रतीत हो रही है, और स्तम्भों पर समश्रेणी में बने हुए विद्याधर युगल यन्त्रचालित जैसे प्रतीत होते हैं, अपनी चमचमाहट से हजारों सूर्य किरणों की माला जैसी प्रतीत होती है, हजारों रूपों से यह युक्त है, दीप्यमान, दैदीप्यमान है, दर्शकों के नेत्रों को आकृष्ट करने वाली है, इसका स्पर्श सुखकारी है, इसका रूप बड़ा मनोहर है। कंचण-मणिरयण-थूभियागा, णाणाविह पंचवण्ण-घंटा- इसके शिखर स्वर्ण मणि और रत्नों के बने हुए है, अनेक पडाग-पडिमंडितग्गसिहरा, धवला, मिरीइकवचं विणिम्मुयंती प्रकार के घंटों और पंचवर्ण वाली पताकाओं से जिसके शिखरों लाउल्लोइयमहिया, गोसीस-सरसरत्तचंदण-बद्दरविन्नपंचगुलि- के अग्रभाग मंडित हैं, ये शिखर धवल-श्वेत वर्ण के हैं, जिससे तला, उचियचंदण कलसा, चंदणघडसुकय-तोरण-पडिदुवार- ऐसी प्रतीत होती है कि मानो किरणरूपी कवचों को छोड़ रही है, देसभ गा, आसत्तोसत्त-विउल-बट्ट-वग्धारिय-मल्लदामकलावा, अर्थात् चारों ओर से किरणें निकल रही हैं, इसका नीचे का सारा पंचवण्ण-सरस-सुरभिमुक्क-पुप्फपुजोवयारकलिया, कालागुरु- भाग गोमय से लिपा हुआ और भीतें श्वेत मिट्टी से पुती होने से पवर-कुन्बुरुक्क-तुरक्क-धूवमघमत-गंधुद्धयाभिरामा-सुगंधवर- पवित्रता की प्रतीति होती है, इसकी भित्तियों पर गो-शीषं और सरस रक्त चन्दन के लेप के हाथ लगे हुए हैं, मगल के निमित्त जिसमें चन्दन कलश रखे हैं, इसके प्रवेश द्वार पर सुघड़ता से बनाये गये चन्दन कलशों के तोरण स्थापित किये गये है, जिसकी छत से लटकाई गई विस्तृत और गोल-गोल मालाओं का समूह नीचे जमीन पर लटक रहा है, जो पाँच वर्ग के सरस सुगन्धित पुष्पों के पुज से सुशोभित है, श्रेष्ठ कालागुरु, कुन्द रुष्क, तुरुक, धूप की महकती हुई गंध के फैलने से जो सुहावनी हो रही है, उत्तम सुगंध से सराबोर हो रही है, जिससे गध की गुटिवा जैसी
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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