SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १३५-१३६ गंधिया, गंधवट्टिभूया, अच्छरगणसंघसंविकिन्ना-दिव्वतुडिय- प्रतीत होती है, जो भिन्न-भिन्न देवगणों से खचाखच भरी हुई है, मधुरसहसंपणाइया, सुरम्मा, सव्वरयणामयी अच्छा-जाव- दिव्य वादित्रों के मधुर शब्दघोषों से जो प्रतिध्वनित हो रही है, पडिरूवा। देखने वालों को रमणीय प्रतीत होती है, सर्वात्मना रत्नमयी -जीवा०प०, ३ उ० १, सु० १३७ स्वच्छ--यावत्-प्रतिरूप है। सोहम्माए सभाए तिदिसि तओदारा सुधर्मा सभा के तीन दिशाओं में तीन द्वार- १३६. तीसे णं सोहम्माए सभाए तिदिसि तओदारा पण्णत्ता। १३६. इस सुधर्मा सभा के तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं। तेणं दारा पत्तेयं पत्तेयं दो दो जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, ये प्रत्येक द्वार दो-दो योजन ऊँचे, चौड़ाई में एक-एक योजन एग जोयणं विक्खंभेण, तावइयं चेव पवेसेणं, सेया, वर-कणग के हैं, और उतना ही प्रवेश करने का क्षेत्र है, इन द्वारों के थूभियागा,-जाव-वणमाला, दारवण्णओ। उपरितन भाग श्वेत एवं श्रेष्ठ स्वर्ण के बने हुए हैं-यावत्-जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३७ वनमाला के चित्र बने हैं, इसी प्रकार शेष द्वारों का वर्णन करना चाहिये। मुहमंडवाणं पमाणं मुखमंडपों का प्रमाण१३७. तेसि णं दाराणं पुरओ मुहमंडवा पण्णत्ता, तेणं मुहमंडवा, १३७. इन द्वारों के आगे मुखमंडप कहे गये हैं, ये मुखमंडप साढ़े अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं, छ जोयणाई सक्कोसाइं विक्खं- बारह योजन की लम्बाई और एक कोस अधिक छह योजन की भेणं, साइरेगाई दो जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, मुहमंडवा चौड़ाई वाले हैं, और कुछ अधिक दो योजन के ऊँचे हैं, ये मुख अणेगखंभसय संनिविट्ठा, जाव-उल्लोया, भूमिभाग-वण्णओ। मंडप अनेक सैकड़ों खम्भों से युक्त हैं-यावत्-उल्लोक एवं भूमिभाग इत्यादि का वर्णन करना चाहिये। तेसि णं मुहमंडवाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं अट्ठ मंगला इन प्रत्येक मुख मंडपों के ऊपर आठ-आठ मंगलद्रव्य कहे गये पण्णत्ता, सोत्थिय-जाव-दप्पण० । हैं, यथा-स्वस्तिक-यावत्-दर्पण । -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३७ पेच्छाघरमंडवाणं पमाणं प्रेक्षाघर मंडपों का प्रमाण१३८. तेसि ण मुहमंडवाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं पेच्छा घरमंडवा १३८. इन प्रत्येक मुखमंडपों के आगे प्रेक्षागृह मंडप कहे गये हैं। पण्णत्ता। तेणं घेच्छाघरमंडवा अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं,-जाव- ये प्रेक्षागृह मंडप साढ़े बारह योजन के लम्बे-यावत्-ऊंचाई दो जोषणाई उड्ढे उच्चतेणं,-जाव-मणिफासो। में दो योजन के ऊँचे हैं यावत् -भूमिभाग का वर्णन मणियों के स्पर्श के वर्णन तक पूर्व के जैसा करना चाहिये। १३६. तेसि णं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामय अक्खाडगा १३६. प्रत्येक मुखमंडप के अतिमध्यभाग में वज्ररत्न से बने हुए पण्णत्ता। अखाड़े कहे गये हैं। तेसि णं बहरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं इन वज्ररत्नमय अखाड़ों के बीचों-बीच अलग-अलग मणिपत्तेयं मणिपीडिया पण्णत्ता । पीठिकायें कही गई हैं। ताओ णं मणिपीडियाओ जोयणमेगं आयाम-विक्खं भेणं, ये मणिपीठिकायें एक योजन की लम्बी चौड़ी और आधे योजन अद्धजोयणं बाहल्लेणं, सव्वमणिमईओ अच्छाओ-जाव-पडि- की मोटी है, सर्वात्मना रत्नमयी, स्वच्छ-यावत -प्रतिरूप है। रूवाओ। तासि णं मणिपीढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा इन प्रत्येक मणिपीठिकाओं पर अलग-अलग सिंहासन कहे पण्णत्ता। गये है। सीहासण,वण्ण प्रो-जाव-दामा परिवारो। इन सिंहासनों का वर्णन-यावत् -मालाओं का भद्रासन आदि परिवारसहित वर्णन पूर्व के जैसा करना चाहिये ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy