SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ गणितानुयोग : भूमिका ६ हिरण्मय ७ और उत्तरकुरु । इनमें इलावृत को छोड़कर शेष ६ उपर्युक्त सप्त क्षेत्रों में से केवल भारतवर्ष में ही कृत, त्रेता, का विस्तार उत्तर-दक्षिण में नौ-नौ हजार योजन है। इलावत-वर्ष द्वापर, और कलि नामक चार युगों से काल परिवर्तन होता है। मेरु के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चारों ही दिशाओं में किम्पुरुषादिक शेष क्षेत्रों में काल परिवर्तन नहीं होता है। उन नौ-नौ हजार योजन विस्तृत है । इस प्रकार सर्व पर्वतों व वर्षों के आठ क्षत्रों में रहने वाली प्रजा को शोक, परिश्रम, उग और विस्तार को मिलाने पर जम्बू-द्वीप का विस्तार १ लाख योजन क्षुधा आदि की बाधा नहीं होती है। वहाँ के लोग सदा स्वस्थ प्रमाण हो जाता है। एवं आतंक और दुःख से विमुक्त रहते हैं। वे सदा जरा और मेरु पर्वत के दोनों ओर पूर्व-पश्चिम में इलावत-वर्ष की मृत्यु से निर्भय रहकर आनन्द का उपभोग करते हैं। इसलिए सीमा स्वरूप माल्यवान और गन्धमादन पर्वत हैं, जो नील और वहाँ पर भोगभूमि कही गयी है। वहाँ पर पुण्य-पाप, और ऊँचनिषध-पर्वत तक विस्तृत हैं । इनके कारण दोनों ओर दो विभाग नीच आदि का भी भेद नहीं है । उन क्षेत्रों में स्वर्ग-मुक्ति की और हैं, जिनके नाम भद्राश्व और केतुमाल है। इस प्रकार प्राप्ति के कारणभूत व्रत-तपश्चर्या आदि का भी अभाव है, उपयुक्त सात वर्षों को और मिला देने से जम्बू-द्वीप सम्बन्धी केवल भारतवर्ष के ही लोगों में व्रत-तपश्चरणादि के द्वारा स्वर्गसर्व वर्षों (क्षेत्रों) की संख्या नौ हो जाती है। मोक्षादिक की प्राप्ति संभव है । इसलिए यह सर्व क्षेत्रों में श्रेष्ठ मेरु के चारों ओर पूर्वादिक दिशाओं में क्रमशः मन्दर, माना गया है। यहाँ के लोग असि, मषि, आदि कर्मों के द्वारा गन्धमादन, विपुल और सुपार्श्व नाम वाले चार पर्वत हैं। इनके अपनी आजीविका का उपार्जन करते हैं। इसलिए यहाँ की भूमि ऊपर क्रमशः ११०० योजन ऊँचे कदम्ब, जम्बु, पीपल और को कर्मभूमि कहा गया है। वट-वृक्ष हैं। इनमें से जम्बू-वृक्ष के नाम से यह जम्बू-द्वीप जम्बूद्वीप को सर्व ओर से घेरकर लवण-समुद्र अवस्थित है। कहलाता है। यह १ लाख योजन विस्तृत है। लवण-समुद्र को घेरकर दो जम्बूद्वीपस्थ भारतवर्ष में महेन्द्र, मलय, सह्य, सूक्तिमान्, लाख योजन विस्तार वाला प्लक्षद्वीप है। इसके भीतर गोमेध, ऋक्ष, विन्ध्य, पारियात्र, ये कुल सात पर्वत हैं । इनमें से हिमवान चन्द्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक और सुमना नामक ६ पर्वत हैं । से शत्तद्र और चन्द्रभागा आदि, पारियात्र से वेद और स्मृति इनसे विभाजित होकर शान्तद्वय, शिशिर, सुखोदय, आनन्द, शिव, आदि, विन्ध्य से नर्मदा और सुरसा आदि, ऋक्ष से तापी, पयोष्णी क्षेमक, और ध्र व नामक सात वर्ष अवस्थित हैं । इन वर्षों और और निर्विन्ध्यादि, सह्य से गोदावरी, भीमरथी और कृष्णवेणी पर्वतों के ऊपर देव और गन्धर्व रहते हैं, वे आधि-व्याधि से आदि, मलय से कृतमाला और ताम्रपर्णी आदि, महेन्द्र से त्रिसामा रहित और अतिशय पुण्यवान हैं । वहाँ युगों का परिवर्तन नहीं और आर्यकुल्या आदि, तथा सूक्तिमान् पर्वत से ऋशिकुल्या और है। केवल सदा काल त्रेतायुग जैसा समय रहता है। उनमें चातुकुमारी आदि नदियाँ निकली हैं। इन नदियों के किनारों पर वर्ण-व्यवस्था है और वे अहिंसा-सत्यादि पाँच धर्मों का पालन मध्यदेश को आदि लेकर कुरु और पांचाल, पूर्व देश को आदि करते हैं । इस द्वीप में १ प्लक्ष वृक्ष है, इस कारण यह द्वीप लेकर काम-रूप, दक्षिण को आदि लेकर पुण्ड्र, कलिंग और मगध, प्लक्ष नाम से प्रसिद्ध है । पश्चिम को आदि लेकर सौराष्ट्र, सूर, आभीर और अर्बुद, तथा प्लक्षद्वीप को चारों ओर से घेरकर इक्ष रसोद समुद्र-अवस्थित ' उत्तर देश को आदि लेकर मालव, कोसभ, सौवीर, सैन्धव, हूण, है, जो प्लक्षद्वीप के समान ही विस्तार वाला है । इसे चारों ओर शाल्व और पारसीकों को आदि लेकर भाद्र, आराम और से घेरकर चार लाख योजन विस्तार वाला शाल्मलद्वीप है। इसी अम्बष्ठ देशवासी रहते हैं। क्रम से आगे सुरोद समुद्र, कुशद्वीप, घृतोद समुद्र, क्रौंचद्वीप, " ॥ १६ १. विष्णु-पुराण द्वितीयांश द्वितीय अ० श्लोक १०-१५ २. विष्णु-पुराण ३. विष्णु-पुराण " " १७-१६ ४. विष्णु-पुराण " " १६ ५. विष्णु-पुराण, द्वितीयांश, द्वितीय अ०, श्लोक १६ मार्कण्डेय-पुराण अ० ५४ श्लोक ८-१४ मार्कण्डेय-पुराण अ० ५४ श्लोक १४-१६ मार्कण्डेय-पुराण अ० ५४ श्लोक ६ मार्कण्डेय-पुराण अ० ५४ श्लोक १४-१६ मार्क० पु० अ० ४५ श्लोक १४-१६, १०-१४ १५-१७ ७. वि० पु० द्वि० अ० तृ० अ० श्लोक १६:२२२ २८ ६. , , च० अ० , १-१८ ८. , , , तृतीय , ,
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy