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________________ गणितानुयोग : भूमिका ८५ ७ यव = १ अंगुलीपर्व और परनिर्मितवशवर्ती । प्रेतों को जैनों ने देवयौनिक माना है। २४ अंगुलीपर्व १ हस्त अतएव इसे उक्त ६ देवलोकों में अन्तर्गत करने पर नरक, तिर्यक, १ धनुष मनुष्य और देव, ये चार लोक ही सिद्ध होते हैं, जो कि '५०० धनुष = १ कोश जैनाभिमत चारों गतियों का स्मरण कराते हैं। कोश = १ योजन बौद्धों ने प्रेत-योनि को एक पृथक गति मानकर पाँच गतियाँ ६-काल-माप स्वीकार की हैं। यथा :बौद्ध ग्रन्थों में काल का प्रमाण इस प्रकार बतलाया गया नरकादिस्वनामोक्ता गतयः पंच तेषु ताः (अभिधर्मकोश ३, ४) ऊपर बतलाये देवों में से चातुर्महाराजिक देव-इन्द्र का, १२० क्षण १ तत्क्षण तुषित-लौकान्तिक देवों का, त्रयस्त्रिश त्रायस्त्रिश देवों का, तथा ६० तत्क्षण १ लव शेष भेद व्यन्तर-देवों का स्पष्ट रूप से स्मरण कराते हैं । ३० लव १ मुहूर्त जैनों के समान बौद्धों ने भी देवों और नारकी जीवों को ६० मुहूर्त १ अहोरात्रि औपपातिक जन्म वाला माना है । यथा :३० अहोरात्र = १ मास नारका उपपादुकाः अन्तरा भव देवश्च । १२ मास १ संवत्सर कल्पों के अन्तरकल्प, संवर्तकल्प और महाकल्प आदि (अभिधर्मकोष, ३,४) अनेक भेद बतलाये गये हैं। बौद्धों ने भी जैनों के समान नारकी जीवों का उत्पन्न होने तुलना और समीक्षा के साथ ही ऊर्ध्वपाद और अधोमुख होकर नरक-भूमि में गिरना बौद्धों ने दस लोक माने हैं-नरकलोक, प्रेतलोक, तिर्यक्- माना है । यथा :लोक, मनुष्यलोक और ६ देवलोक । छह देवलोकों के नाम इस एते पतंति निरय उद्धपादा अवंसिरा । (सुत्तनिपात) • प्रकार हैं-चातुर्महाराजिक, त्रयस्त्रिश, याम, तुषित, निर्माणरति (ऊर्ध्वपादास्तु नारकाः) (अभिधर्मकोष ३, १५) (ग) वैदिक धर्मानुसार लोक-वर्णन १-मर्त्य लोक जिस प्रकार जैन ग्रन्थों से ऊपर भूगोल का वर्णन किया इस जम्बूद्वीप में मेरु-पर्वत के दक्षिण-भाग में हिमवान गया है लगभग उसी प्रकार से हिन्दू पुराणों में भी भूगोल का हेमकूट और निषध तथा उत्तर भाग में नील, श्वेत और श्रृंगी वर्णन पाया जाता है। विष्णु-पुराण के द्वितीयांश के द्वितीया- ये छः वर्ष-पर्वत हैं । इन से जम्बूद्वीप के सात भाग हो जाते हैं। 'ध्याय में बतलाया गया है कि इस पृथ्वी पर १ जम्बू, २ प्लक्ष, मेरु के दक्षिणवर्ती निषध और उत्तरवर्ती नील पर्वत, पूर्व-पश्चिम : ३ शाल्मल, ४ कुश, ५ क्रौंच, ६ शाक और ७ पुष्कर नाम वाले लवण-समुद्र तक १ लाख योजन लम्बे दो-दो हजार योजन ऊँचे सात द्वीप हैं । ये सभी चूड़ी के समान गोलाकार और क्रमशः और इतने ही चौड़े हैं। इनमें परवर्ती हेमकूट और श्वेत-पर्वत १ लवणोद, २ इक्षुरस, ३ मदिरारस, ४ घृतरस, ५ दधिरस, लवण-समुद्र तक पूर्व-पश्चिम में नव्वे (९०) हजार योजन लम्बे, ६ दूधरस, ७ मधुररस वाले सात समुद्रों से वेष्टित हैं। इन दो हजार योजन ऊंचे और इतने ही विस्तार वाले हैं। इनसे • सबके मध्य-भाग में जम्बूद्वीप है। इसका विस्तार एक लाख परवर्ती हिमवान और शृंगी-पर्वत पूर्व-पश्चिम में अस्सी (८०) योजन है। उसके मध्य भाग में.८४ हजार योजन ऊंचा स्वर्णमय हजार योजन लम्बे, दो हजार योजन ऊँचे और इतने ही विस्तार :. मेरु-पर्वत है। इसकी नींव पृथ्वी के भीतर १६ हजार योजन वाले हैं । इन पर्वतों के द्वारा जम्बू-द्वीप के सात भाग हो जाते है। मेरु का विस्तार मूल में १६ हजार योजन है और फिर हैं । जिनके नाम दक्षिण की ओर से क्रमशः इस प्रकार हैंक्रमशः बढ़कर शिखर पर ३२ हजार योजन हो गया है। .. १ भारतवर्ष, २ किम्पुरुष, ३ हरिवर्ष, ४ इलावत, ५ रम्यक. ..... अभिधर्म कोश.३,८८-८९ २. अभिधर्म कोश ३,६० १३. नरक-प्रेत-तिर्यञ्चो मानुषाः षड् दिवौकसः । (अभिधर्मकोष ३, १) १४. विशु-पुराण द्वितीयांश, द्वितीय अध्याय, श्लोक; ५-६ मार्कण्डेय-पुराण अ० ५४ श्लोक ५-७
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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