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गणितानुयोग : भूमिका
है1 । इन नरकों के चारों पार्श्वभागों में कुकूल, कुणप, क्षुर्मा- कामधातु के ऊपर सत्तरह स्थानों से संयुक्त रूपधातु हैं। वे र्गादिक, (असिपत्रवन, श्यामसबलस्वस्थान अयः शाल्मलीवन) और सत्तरह स्थान इस प्रकार हैं। प्रथम स्थान में ब्रह्मकायिक, ब्रह्माखारोदक वाली वैतरणी नदी ये चार उत्सद हैं । अर्बुद, निरर्बुद, पुरोहित, और महाब्रह्म लोक हैं। द्वितीय स्थान में परिताभ, अटट, उहहब, हुहूब, उत्पल, पद्म और महापद्म नाम वाले ये अप्रभाणाभ, और आभस्वर लोक हैं। तृतीय स्थान में परित्तशुभ, आठ शीत-नरक और हैं, जो जम्बूद्वीप के अधो-भाग में महानरकों अप्रमाणशुभ, और शुभकृत्स्न लोक हैं। चतुर्थ स्थान में अनभ्रक, के धरातल में अवस्थित है।
पुण्यप्रसव, वृहद्फल, पंचशुद्धावासिक, अबृह, अतप सुदृश-सुदर्शन ३-ज्योतिर्लोक
और अकनिष्ठ नाम वाले आठ लोक हैं। ये सभी देवलोक
क्रमशः ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं। इनमें रहने वाले देव ऋद्धिमेरु-पर्वत के अर्द्ध-भाग अर्थात् भूमि से चालीस हजार योजन
बल अथवा अन्य देव की सहायता से ही अपने से ऊपर के देवऊपर चन्द्र और सूर्य परिभ्रमण करते हैं । चन्द्र-मण्डल का प्रमाण
लोक को देख सकते हैं। पचास योजन और सूर्य-मण्डल का प्रमाण इक्यावन योजन है ।
___ जम्बूद्वीपस्थ मनुष्यों का शरीर साढ़े तीन या चार हाथ, पूर्व जिस समय जम्ब-द्वीप में मध्याह्न होता है उस समय उत्तरकुरु विटेवासियों का ७-८ हाथ. गोदानीय दीपवासियों का १४-१६ में अर्घ रात्रि, पूर्वविदेह में अस्तगमन और अवरगोदानीय में
हाथ, और उत्तर-कुरुस्थ मनुष्यों का शरीर २८-३२ हाथ ऊँचा सूर्योदय होता है । भाद्र मास के शुक्ल-पक्ष की नवमी से रात्रि
होता है। कामधातुवासी देवों में चातुर्महाराजिक देवों का की वृद्धि और फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की नवमी से उसके
शरीर ! कोश, त्रायस्त्रिशों का ! कोश, यामों का कोश, तुषितों हानि का आरम्भ होता है । रात्रि की वृद्धि, दिन की हानि और का १ कोश, निर्माणरति देवों का १ कोश और परनिर्मितवशवर्ती रात्रि की हानि, दिन की वृद्धि होती है । सूर्य के दक्षिणायन में देवों का शरीर १ कोश ऊँचा है । आगे ब्रह्मपुरोहित, महाब्रह्म, रात्रि की वृद्धि और उत्तरायण में दिन की वृद्धि होती है।
परिताभ, अप्रभाणाभ, आभस्वर, परित्तशुभ, अप्रमाणशुभ, और ४-स्वर्गलोक
शुभकृस्त्न देवों का शरीर क्रमशः १, १, २, ४, ८, १६, ३२, मेरु के शिखर पर त्रयस्त्रिश (स्वर्ग) लोक है। इसका विस्तार और ६४ योजन प्रमाण ऊँचा है । अनभ्र देवों का शरीर १२५ अस्सी हजार योजन है। यहाँ पर त्रायस्त्रिश देव रहते हैं। इसके योजन ऊंचा है, आगे पुण्यप्रसव आदि देवों के शरीर उत्तरोत्तर चारों विदिशाओं में वज्रपाणि देवों का निवास है। त्रयस्त्रिश- दूनी ऊँचाई वाले हैं101 लोक के मध्य में सुदर्शन नाम का नगर है, जो सुवर्णमय है।
५-क्षेत्र-माप इसका एक-एक पार्श्व भाग ढाई हजार योजन विस्तृत है। उसके बौद्ध ग्रन्थों में योजन का प्रमाण इस प्रकार बतलाया मध्य-भाग में इन्द्र का अढाई सौ योजन विस्तृत वैजयन्त नामक गया है11 :प्रासाद है । नगर के बाहरी भाग में चारों ओर चैत्ररथ, पारुष्य,
७ परमाणु
१ अणु मिश्र और नन्दन ये चार वन हैं । इनके चारों ओर बीस हजार
अणु
१ लौहरज योजन के अन्तर से देवों के क्रीड़ा-स्थल हैं।
लौहरज
१ जलरज त्रयस्त्रिश-लोक के ऊपर विमानों में याम, तुषित,निर्माणरति,
जलरज
१ शशरज और परनिर्मित-वशवर्ती देव रहते हैं। कामधातुगत देवों में से
शशरज
१ मेषरज चातुर्माहाराजिक और पर्या-श देव मनुष्य के समान काम सेवन
मेषरज
१ गोरज करते हैं । याम, तुषित, निर्माणरति, परनिर्मितवशवर्ती देव क्रमशः ७ गोरज - १ छिद्ररज आलिंगन, पाणिसंयोग, हसित, और अवलोकन से ही तृप्ति को
ফিল _ १ लिक्षा (लीख) प्राप्त होते हैं।
७ लिक्षा
१ यव
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१. अ. को. ३, ५८, ३. अ. को. ३, ६०, ५. अ. को. ३, ६५, ७. अ. को. ३, ६८ । ९. अ. को. ३, ७१-७२,
२. अ. को. ३, ५६, ४. अ. को. ३, ६१, ६. अ. को. ३, ६६-६७, ८. अभि. कोश. ३, ३६, ११. अ. को. ३, ८५-८७ ।
१०. अ. को. ३, ७५-७७,