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गणितानुयोग : भूमिका ८३ | (ख) बौद्धमतानुसार लोक-वर्णन
१-लोक-रचना आ० वसुबन्धु ने अपने अभिधर्म-कोश में लोक रचना इस समान है' । मेरु के पश्चिम भाग में मण्डल-भार अवरगोदानीय'प्रकार बतलाई है :
द्वीप है । इसका विस्तार अढाई हजार योजन और परिधि साढ़े लोक के अधोभाग में सोलह लाख योजन ऊँचा, अपरिमित
सात हजार योजन प्रमाण है। मेरु के उत्तर भाग में सम लवायु-मण्डल है । उसके ऊपर ११ लाख बीस हजार योजन
चतुष्कोण उत्तरकुरुद्वीप है । इसकी एक-एक भुजा दो-दो हजार
योजन की है। इनमें से पूर्व विदेह के समीप में देह-विदेह, उत्तरऊँचा जल-मण्डल है । उसमें ३ लाख बीस हजार योजन कंचनमय भूमण्डल है । जल-मण्डल और कंचन-मण्डल का विस्तार १२
कुरु के समीप में कुरु-कौरव, जम्बूद्वीप के समीप में चामर, अवरनान ३ हजार चार सौ पचास योजन तथा परिधि छत्तीस लाख
चामर तथा गोदानीय द्वीप के समीप में शाटा और उत्तरमन्त्री
नामक अन्तर्वीप अवस्थित हैं। इनमें से चमरद्वीप में राक्षसों का दस हजार तीन सौ पचास योजन प्रमाण है।
और शेष द्वीप में मनुष्य का निवास है। ___कांचनमय भूमण्डल के मध्य में मेरु-पर्वत है। यह अस्सी
___मेरु-पर्वत के चार परिखण्ड (विभाग) हैं । प्रथम परिखण्ड हजार योजन नीचे जल में डूबा हुआ है तथा इतना ही ऊपर
हा ऊपर शीता-जल से दस हजार योजन ऊपर तक माना गया है । इसके निकला हुआ है । इससे आगे अस्सी हजार योजन विस्तृत और
विस्तृत आर आगे क्रमशः दस-दस हजार योजन ऊपर जाकर दूसरा,तीसरा और दो लाख चालीस हजार योजन प्रमाण परिधि से संयुक्त प्रथम
चौथा परिखण्ड है । इनमें से पहला परिखण्ड सोलह हजार योजन सीता (समुद्र) है । जो मेरु को घेर कर अवस्थित है । इससे आगे
दूसरा परिखण्ड आठ हजार योजन, तीसरा परिखण्ड चार हजार चालीस हजार योजन विस्तृत युगन्धर पर्वत वलयाकार से स्थित
योजन और चौथा परिखण्ड दो हजार योजन मेरु से बाहर निकला है। इसके आगे भी इसी प्रकार से एक-एक सीता को अन्तरित
हुआ है । पहले परिखण्ड में पूर्व की ओर करोट-पाणि-यक्ष रहते करके साधे-आधे विस्तार से संयुक्त क्रमशः युगन्धर, ईशाधर,
हैं । दूसरे परिखण्ड में दक्षिण की ओर मालाधर रहते हैं । तीसरे खदीरक, सुदर्शन, अश्वकर्ण, विनतक, और निमिन्धर पर्वत हैं ।
परिखंड में पश्चिम की ओर सदामद रहते हैं और चौथे परिखंड सीताओं का विस्तार भी उत्तरोत्तर आधा-आधा होता गया है। में चातर्माहाराजिक देव रहते हैं। इसी प्रकार शेष सात पर्वतों उक्त पर्वखों में से मेरु चतुर्रत्नमय और शेष सात पर्वत स्वर्षमय
पर भी उक्त देवों का निवास है10 । है। सबसे बाहर अवस्थित सीता (महासमुद्र) का विस्तार तीन
जम्बूद्वीप में उत्तर की ओर बने कीटादि और उनके आगे लाख बाईस हजार योजन प्रमाण है । अन्त में लोहमय चक्रवाल
हिमवान पर्वत अवस्थित है। हिमवान पर्वत से आगे उत्तर में पर्वत स्थित है।
पांच सौ योजन विस्तृत अनवतप्त नाम का अगाध सरोवर है । निमिन्धर और चक्रवाल पर्वतों के मध्य में जो समुद्र स्थित इससे गंगा, सिन्धु, वक्ष और सीता नाम की चार नदियाँ निकली है उसमें जम्बूद्वीप, पूर्व विदेह, अवरगोदानीय और उत्तरकुरु, ये हैं। इस सरोवर के समीप जम्बू-वृक्ष है, जिससे इस द्वीप का नाम चार द्वीप हैं । इनमें जम्बूद्वीप मेरु के दक्षिण भाग में है, उसका जम्बू द्वीप पड़ा है । अनवतप्त-सरोवर के आगे गन्धमादक नाम भाकार शकट के समान है। उसकी तीन भुजाओं में से दो का पर्वत है। भुजाएँ दो-दो हजार योजन और एक भुजा तीन हजार पचास
२-नरक लोक योजन की है।
जम्बूद्वीप के नीचे बीस हजार योजन विस्तृत अवीचि नामा मेरु के पूर्व भाव में अद्ध-चन्द्राकार पूर्व विदेह नाम का द्वीप का नरक है । उसके ऊपर क्रमशः प्रतापन, तपन, महारोरख, है । इसकी भुजाओं का प्रमाण जम्बूद्वीप की तीनों भुजाओं के रौरव, संघात, कालसूत्र और संजीव नाम के सात नरक और
१. अभिधर्मकोश, ३, ४५ । ३. , , ३, ४७-४८ । ५. , . ३, ५१-१२। .., , ३, ५४ ।। ६. , , ३, ५६ १७. अभिधर्मकोश ३, ६३-६४,
२. अभिधर्मकोश ३, ४६ । ४. , , ३, ५० । ६. , , ३, ५३ । ८. , , ३, ५५ । ११., , ३, ५७,