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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन
सूत्र ६६१-६६५
तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेस- उस सम एवं रमणीय भूभाग के ठीक मध्य भाग में लवणाधिभागे-एत्थ णं सुट्ठियस्स लवणाहिवइस्स एगे महं पति सुस्थित देव का एक महान् अतिक्रीडावास नाम का भौमेय अइक्कीलावासे नाम भोमेज्जविहारे पण्णत्ते । विहार कहा गया है। बाढि जोयणाई अद्धजोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, वह साढ़े बासठ योजन ऊपर की ओर ऊँचा है । एक्कतीस जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं,
सवा इक्कतीस योजन चौड़ा है । अणेगखंभसतसन्निविट्ठ भवणवण्णओ भाणियब्यो । अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर टिका हुआ है। भवन का यहाँ
वर्णन कहना चाहिए। अइक्कीलावासस्स णं भोमेज्जविहारस्स अंतो बहुसम- उस अतिक्रीडावास नामक भौमेय विहार के अन्दर का भूभाग रमणिज्जे भूमिभागे पण्णते-जाव-मणीणं भासो। बहुत सम एवं रमणीय कहा गया है-यावत्-मणियों का
प्रकाशयुक्त है। तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेस- उस बहुत सम एवं रमणीय भूभाग के ठीक मध्य भाग में भाए-एत्थ णं एगा मणिपेढिया पण्णत्ता। एक मणिपीठिका कही गई है। सा णं मणिपेढिया दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, वह मणिपीठिका दो योजन की लम्बी-चौड़ी है, एक योजन जोयणबाहल्लेणं सब्वमणिमयी अच्छा-जाव-पडिरूवा। की मोटी है, सारी मणिमय हैं, स्वच्छ है-यावत्-मनोहर है । तीसे गं मणिपेढियाए उवरि-एत्थ णं देवसयणिज्जे उस मणिपीठिका के ऊपर एक देवशय्या कही गई है। यहाँ पण्णत्ते, वण्णओ।
देवशय्या का वर्णन है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६६ गोयमदीवस्स णामहेउ--
गौतमद्वीप के नाम का हेतु६६२. ५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति-"गोयमदीवे गं ६६२. प्र०-भगवन् ! किस कारण से गौतमद्वीप गौतमद्वीप दीवे ?
कहा जाता है ? उ०-तत्थ तत्थ तहि तहिं बहूई उप्पलाइं-जाव-गोयमप्पभाई। उ०-वहाँ स्थान स्थान पर अनेक उत्पल हैं-यावत्
गौतम जैसी प्रभा वाले हैं। से एएण?णं गोयमा !-जाव-णिच्चे।
इस कारण से गौतम ! (यह गौतम द्वीप कहा जाता है)-जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६१ यावत्-(यह नाम) नित्य है। सुट्ठिया रायहाणी
सुस्थित राजधानी६६३. ५०-कहि णं भंते ! सुट्टियस्स लवणाहिवइस्स सुट्ठिया णामं ६६३. भगवन् ! लवणाधिपति सुस्थित देव की सुस्थिता नाम की रायहाणी पण्णत्ता ?
राजधानी कहाँ कही गई है ? उ०-गोयमदीवस्स पच्चत्थिमेणं तिरियमसंखेज्जे-जाव- उ०-गौतमद्वीप के पश्चिम में तिरछे असंख्यद्वीप-समुद्रो के
अण्णंमि लवणसमुद्दे वारसजोयणसहस्साई ओगा- बाद-यावत्-अन्य लवणसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर हित्ता, एवं तहेव सव्वं णेयव्वं-जाव-सुत्थिए देवे । है। इस प्रकार सारा वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए-यावत्
-जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६१ वहाँ सुस्थितदेव विहार (विचरण) करता है। मन्दरस्स गोयमदीवस्स य चरमन्ताणमन्तरं- मन्दर और गौतमद्वीप के चरमान्तों का अन्तर६६४. मंदरस्स णं पब्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरमताओ गोयम- ६६४. मन्दरपर्वत के पूर्वी चरमान्त से गौतम द्वीप के पूर्वी
दीवस्स पुरथिमिल्ले चरमते, एसा णं एगूणसरि जोयण- चरमान्त का व्यवहित अन्तर सडसठ हजार योजन का कहा
सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते, -सम० ६७, सु० ३ गया है । ६६५. मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चथिमिल्लाओ चरमंताओ गोयम- ६६५. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गौतम द्वीप के
दीवस्स पच्चस्थिमिल्ले चरमंते, एस णं एगूणसरि जोयण- पश्चिमी चरमान्त का व्यवहित अन्तर उनहत्तर हजार योजन का सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णते। -सम० ६७, सु०३ कहा गया है।