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सूत्र ६६६-६७
तिर्यक् लोक लवणसमुद्र वर्णन
लवणाइसमुद्दाणं उदगसख्यं
लवणादि समुद्रों के जल का स्वरूप
६१६- १० - लवणं भंते! समुद्दे कि उस्सिओए ? कि त्यो ६२६. प्र० भगवन् ! क्या लवणसमुद्र उदक (ऊपर उठने दए ? कि जिले ? कि अशुभ वाले जल वाला) प्रस्तटोदक (समान जल वाला) है, क्षुब्ध जल वाला है या अक्षुब्ध जल वाला है ?
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उ०- गोयमा ! लवणे णं समुद्द े उस्सिओदए, नो पत्थडोदए, खुभियजले, नो अखुभियजले ।
प० - जहा णं भंते ! लवणसमुद्द े उसितोदगे, नो पत्थडोदगे, खुभियजले, नो अखुभियजले, तहा णं बाहिरगा समुद्दा कि उस्सिओदगा, पत्थडोदगा, खुभियजला, अखुभिय जला ?
उ०- गोयमा ! बाहिरगा समुद्दा नो उस्सिओदगा, पत्थडोदगा नो अभिया, पुष्णा पुण्य माणा, बोलदृमाणा, बोसट्टमाणा, सममरपडत्ताए चिट्ठन्ति ।"
प० से केणट्टणं भंते ! एवं बुच्चति
बाहिरगा णं समुद्दा पुग्णा पुष्णष्यमाणा बोलमाणा बोलमाणा समभरघडया ए चिट्ठन्ति ?
उ० गोपमा बाहिरए समूह बहने उदगजोगिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति, विउक्कमंति, चयंति, उवचयंति ।
से ते गोपमा ! एवं बुवति "बाहिरगा समुद्दा, पुण्णा, पुण्णव्यमाणा- जाव- समभरघडत्ताए चिटुन्ति । जीवा पहि० २ ० २ ० १६२ लवणासु समद्देसु मन्छाईणं सम्भावो बाहिरएस समदे अभावो
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६६७. ५० -अस्थि णं भंते! लवणसमुद्द े वेलंधराति वा नाग
गणितानुयोग ३५६
उ०- गौतम ! लवणसमुद्र उच्छ्रितोदक ( ऊपर उठने वाले जल वाला) प्रस्तटोदक - समान जल वाला नहीं है, क्षुब्ध जल वाला है, अक्षुब्ध जल वाला नहीं है।
प्र० - भगवन् ! जिस प्रकार लवणसमुद्र उच्छ्रितोदक (ऊपर की ओर उछलने वाले जल वाला है) समान जल वाला नहीं है, क्षुब्ध जल वाला है, अक्षुब्ध जल वाला नहीं है क्या उसी प्रकार बाहर के समुद्र उच्छ्रितोदक (ऊपर की ओर उछलने वाले जल वाले) हैं, समान जल वाले नहीं हैं, क्षुब्ध जल वाले हैं, अक्षुब्ध जल वाले नहीं हैं ?
उ०
- गौतम ! बाहर के समुद्र उच्छ्रितोदक नहीं है, समान जन वाले हैं, क्षुध जल वाले नहीं है, अधजल वाले हैं, क्योंकि वे पूर्ण है, सीमा तक परिपूर्ण हैं, भरे हुए होने से छलकते हुए प्रतीत होते हैं, अत्यधिक छलते हुए प्रतीत होते हैं और भरे हुए घड़े जैसे प्रतीत होते हैं।
प्र० - भगवन् ! (अढाई द्वीप से) बाहर के समुद्र पूर्ण हैं, पूर्ण प्रमाण वाले हैं, छलकते नहीं है किन्तु उहुए से प्रतीत होते हैं—ऐसा क्यों कहा जाता है ?
उ०- गौतम ! बाहर के समुद्रों में जल योनि वाले अनेक जीव उत्पन्न होते रहते हैं और अनेक मरते रहते हैं, तथा अनेक पुद्गल उनमें से निकलते रहते हैं, और उदकरूप में अनेक पुद्गल बढ़ते रहते हैं ।
इस कारण से गौतम ! यह कहा जाता है कि अढाई द्वीप के बाहर के समुद्र पूर्ण हैं, पूर्ण प्रमाण वाले हैं-- यावत्-भरे हुए पड़े जैसे प्रतीत होते हैं।
लवणादि समुद्रों में मत्स्यादि का अस्तित्व और बाह्यसमुद्रों में अभाव
६६७. प्र० -- भगवन् ! क्या लवणसमुद्र में वेलंधर नागराज हैं ?
१ वियाहपण्णत्ति में पाठ इस प्रकार है
प्र०—– लवणे णं भंते । समुद्दे किं उस्सिओदए, पत्थडोदए, खुभियजले, अखुभियजले ?
उ० – गोयमा ! लवणे णं समुद्दे उस्सिओदए नो पत्थडोदए, खुभियजले, नो अखुभियजले । एत्तो आढत्तं जहा जीवाभिगमे - जाव गोवमा ! बाहिरियाणं दीवसमुद्दा पुष्पा पुष्णप्यमाणा बोलद्रुमाणा बोसट्टमाणा समभारत चिति ।
से ते
( जीवाभिगम पडि. ३, उ. २, सु. १६६ में इतना ही पाठ मिलता है ।) "ठाणतो एमविहिविहाणा, वित्थरको गविहिविहाणा दुगुणा दृगुणप्यमागतो दीवसमुद्दा सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो ।
( संठाणतो से लेकर समणाउसो ! पर्यन्त का पाठ वियाहपण्णत्ति में है )
जाय अस्मि तिरिए संजा
- वियाह. स. ६ उ ८, सु. ३५