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लोक-प्रज्ञप्ति
रायाति वा खन्नाति वा अग्घाति वा सिंहाति वा विजातीति वा' हासवट्टीति वा ?
उ०- हंता अस्थि ।
प० - जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे अस्थि वेलंधराति वा नागरायाति वा अग्गाति वा सिंहाति वा विजातीति वा हासवट्टीति वा तहा णं बाहिरतेसु विसमुद्देसु अस्थि वेलंधराइ वा नागरायाति वा अग्घीति वा सीहाति वा विजातीति वा हासबट्टीति वा ?
उ०- णो तिट्टे समट्टे ।
तिर्यक् लोक लवणसमुद्र वर्णन
उ०
प० - से केण णं भंते! एवं वृच्चति - " बाहिरगा णं समुद्दा पूण्णा पुण्णप्पमाणा बोलट्टमाणा वोसट्टमाणा सममरपडियाए चिgन्ति १"
-जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १६८
लवणासु समद्देसु वुट्ठी बाहिरएस समद्देमु लवणादि समुद्रों में वृष्टि और बाह्यसमुद्रों में अनावृष्टिअवुट्ठी
६६८. प - अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवे ओराला बलाहका ६६८. प्र० - भगवन् ! क्या लवणसमुद्र में बहुत से उदारमेध संसेति संति वासं वासंति ? उ०- हंता अस्थि ।
बनने लगते हैं, बनते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? उ०- हाँ, ऐसा होता है ।
प० - जहा णं भंते ! लवणसमुद्द े बहवे ओराला बलाहका संसेयंति, संमुच्छति, वासं वासंति वा, तहा णं बाहिरए व समृद्देसु बहवे ओराला बलाहका संसेति संमुच्छंति, वासं वासंति ?
उ०- यो तिग सम
समुद्देसु बहये उदयजोणिया
-गोपमा ! बाहिरए जीवा य, पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति, विउक्क मंति, चीयंते उवचीयते ।
से संगणं गोवमा एवं युष्य" बाहिरगा समुदा पुष्णा-जाव-समरपटलाए विट्ठन्ति ।
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- जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १६६
देवेसु लवणसमद्दाणुपरियटणसामत्य-पव
६११. ० देवेमं
महिदडीए-जामसोबले, पनू लवण
समुद्र अणुपरिपट्टिता में यमागच्छतए ?
उ०- हंता गोयमा ! पभू ।
सूत्र ६६७-६६६
-भग० स० १८ उ० ७, सु० ४५
खन्न अग्घ सीह विजाति (आदि मच्छ कच्छ) हैं ? और जल की हानि या वृद्धि है ?
उ०- हाँ ऐसा है ।
प्र० - भगवन् ! जिस प्रकार लवणसमुद्र में वेलंधर नागराज हैं, खन्न अग्ध सीह विजाति (आदि मच्छ- कच्छ) हैं और जल की हानि या वृद्धि है तो क्या उसी प्रकार बाह्यसमुद्रों में भी वेलंधर नागराज हैं ? खन्न अग्घ सीह विजाति ( आदि मच्छ- कच्छ) हैं, और जल की हानि या वृद्धि हैं ?
उ०- नहीं, ऐसा नहीं है ।
प्र०- भगवन् ! जिस प्रकार लवणसमुद्र में बहुत से उदारमेघ बनने लगते हैं, बनते हैं और वर्षा बरसाते हैं क्या उसी प्रकार बाहर के समुद्रों में भी बहुत से उदारमेष बनने लगते है, बनते है और वर्षा बरसाते हैं ?
उ०- ऐसा नहीं होता है।
प्र० - भगवन् ! किस किरण से ऐसा कहा जाता है कि'बाह्य समुद्र पूर्ण हैं अपनी सीमा तक परिपूर्ण हैं, भरे हुए होने से छलकते हुए प्रतीत होते हैं, अत्यधिक छलकते हुए प्रतीत होते हैं तथा भरे हुए घड़े जैसे प्रतीत होते हैं ?
उ०- गौतम ! बाह्यसमुद्रों में से बहुत से जलयोनिक जीव तथा पुद्गल बाहर निकलते हैं और बहुत से उनमें उत्पन्न होते हैं; बढ़ते हैं, बहुत ज्यादा बढ़ते हैं ।
गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि बाह्य समुद्र पूर्ण है-भरे हुए पड़े जैसे प्रतीत होते हैं।
देवों में लवणसमुद्र की परिक्रमा करने के सामर्थ्य
प्ररूपण
६६९. प्र० - हे भगवन् ! महधिक — यावत् – महासुखी देव लवणसमुद्र की परिक्रमा करके शीघ्र आने में समर्थ है ? उ०- हाँ गौतम ! समर्थ है ।
१ अग्घादयो मत्स्य- कच्छप विशेषाः आह च चूर्णिकृत् - अग्घा सीहा विजाई इति मच्छ - कच्छभा इति ।
२ 'हासवट्टीति वा' - ह्रस्व-वृद्धी जलस्येति गम्यते इति ।
३ अढाईद्वीप अर्थात् मनुष्य क्षेत्र अथवा समय क्षेत्र में केवल दो समुद्र हैं - ( १ ) लवणसमुद्र और ( २ ) कालोदधिसमुद्र । अढाईद्वीप
से बाहर अनेक द्वीप तथा अनेक समुद्र हैं । यहाँ अढाईद्वीप के बाहर के समुद्रों से सम्बन्धित ये प्रश्न हैं ।