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________________ ७३८ अलोक-प्रज्ञप्ति अलोक के एक आकाश प्रदेश में जीवादि नहीं हैं सूत्र ६.८ एगे अजीववव्वदेसे अगुरुलहुए, अणतेहिं अगुरुय- अलोक एक अजीव द्रव्य देश है, अनु लघु है, अनन्त अगुरुलहुयगुणेहि संजुते, सव्वागासे अणंतमागूणे । लघु गुणों से संयुक्त है, अनन्त भाग कम पूर्ण आकाश है। -भग. स. २, उ. १०, सु. १२ । प०-अलोए णं भंते ! कि जीवा-जाव-अजीव पएसा? प्र०-भगवन् ! अलोक क्या जीव है-यावत्-अजीव प्रदेश है ? २०-गोयमा ! जहा अलोगागासे । । उ०-गौतम ! अलोकाकाश जैसा है। -भग. स. ११, उ. १०, सु. १६ । अलोगस एगागासपएसे विनत्थि जीवाई- अलोक के एक आकाश प्रदेश में जीवादि नहीं है७. ५०-अलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कि जीवा, ७. प्र०-भगवन् ! अलोक के एक आकाश प्रदेश में क्या जीव जाव-अजीव पएसा? हैं-यावत्-अजीव प्रदेश हैं ? उ०-गोयमा ! नो जीवा-जाव-नो अजीवप्पएसा। उ०-गौतम ! न जीव हैं-यावत्-न अजीव प्रदेश हैं। -भग० स० ११, उ० १०, सु० २१ । अलोगस्स महालयत्त अलोक की महानता१.५०-अलोए णं भंते ! के महालए पण्णत्ते ? । ८. प्र०-भगवन् ! अलोक की महानता कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! अयं णं समयखेत्ते पणयालीसं जोयण उ०-गौतम ! यह समय क्षेत्र पैतालीस लाख योजन का सहस्साई आयाम-विक्खभेणं एगा जोयण कोडी बाया- लम्बा चौड़ा है, एक क्रोड, बियालीस लाख, तीस हजार दो सौ लीसं च जोयणसयसहस्साइं तीसं च जोयणसहस्साइं उनपचास योजन से कुछ अधिक की परिधि है । दोणि य अउणापण्णे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं । तेणं कालेणं, तेणं समएणं बस देवा महिड्ढीया- उस काल, उस समय, दस महधिक-यावत्-महासुखी देव जाव-महेसुक्खा जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पम्वए, मंदरं जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत की चूलिका को चारों ओर से घेर चूलियं सम्बओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठज्जा। कर रहें । अहे गं अटुविसाकुमारिमहत्तरियाओ अट्ट बलिपिंडे नीचे आठ बड़ी दिशाकुमारियाँ आठ बलिपिंड लेकर मानुषोगहाय माणुसुत्तर पव्वपस्स चउसु वि दिसासु, चउसु तर पर्वत की चारों दिशाओं में चार विदिशाओं में बाहर की वि विदिसासु बहियाभिमुहीओ ठिच्चा अट्ठ बलिपिडे ओर मुंह करके खड़ी रहें और आठ बलिपिंड फेंके, उन्हें वे देव धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए। भूमि पर गिरने से पहले ग्रहण कर लें। ते गं गोयमा ! देवा ताए उक्किट्ठाए-जाव-देवगईए हे गौतम ! उस उत्कृष्ट-यावत्-देवगति से लोक के अन्त लोगते ठिच्चा असम्भावपट्ठवणाए । में ठहरकर, असद्भाव कल्पना से अलोक का अन्त पाने के लिए, एगे देवे पुरत्याभिसुहे पयाए, एक देव पूर्व दिशा में जावे, एगे देवे दाहिण पुरस्थाभिमुहे पयाए, एक देव दक्षिण-पूर्व में जावे इस प्रकार यावत् एवं जाव उत्तर पुरत्थाभिमुहे पयाए, एक देव उत्तर-पूर्व में जावे, एगे देवे उड्ढाभिमुहे पयाए, एक देव ऊर्ध्व दिशा में जावे, एगे देवे अहोभिमुहे पयाए । एक देव अधो दिशा में जावे । तेणं कालेणं तेणं समएणं बाससयसहस्साउए दारए उस काल उस समय में एक लाख वर्ष की आयु वाला पयाए। बच्चा उत्पन्न हुआ। तए गं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणां भांति। उस बच्चे के माता-पिता का देहावसान हो गया, वह और तं चैव जाव । नो चेव णं देवा अलोयतं संपाउणंति। उसके पौत्रादि सातवीं पीढ़ी समाप्त हो गई। किन्तु वे देव अलोक का अंत नहीं पा सके । उसक याबाचे कालवा-पडा का देहावसान हो गयायह व
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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