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________________ ११६ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र २३७-२४० उ० गोयमा ! सुहुमवाउकाइया जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे उ० हे आयुष्मान् श्रमण गौतम ! सूक्ष्म वायुकायिक जो एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावष्णगा पर्याप्त और अपर्याप्त है वे सब एक समान हैं, वे किसी प्रकार पण्णत्ता समणाउसो।' की विशेषता वाले नहीं है, वे नानाप्रकार के नहीं है और वे -पण्ण० पद २, सु० १५७-१५६ सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है । वणस्सइकाइयाणं ठाणाई वनस्पतिकायिकों के स्थान२३८. प० कहि णं भंते ! बादरवणस्सकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा २३८. प्र० भगवन् ! पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिकों के स्थान कहाँ पन्नत्ता ? कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! सट्ठाणेणं सत्तनु घणोदहीसु सत्तसु घणोदही- उ० गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से सात घनोदधियों में वलएसु। और सात घनोदधिवलयों में है। (१) अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु । (१) अधोलोक में-पातालों में, भवनों में, और भवन प्रस्तटों में हैं। (२) उड्ढलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणवलियासु विमाण- (२) ऊर्बलोक में-कल्पों में, विमानों में, विमान-पंक्तियों पत्थडेसु । में और विमानप्रस्तटों में हैं। (३) तिरियलोए अगडेसु तडागेसु नदीसु दहेसु वावीसु (३) तिर्यक्लोक में-कूषों में, तालाबों में, नदियों में, पुक्खरिणीसु वोहियासु गुजालियासु सरेसु सरपंति- द्रहों में, वापिकाओं में, पुष्करिणीयों में, दीर्घिकाओं में, गुजायासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु लिकाओं में, सरों में, सर-पंक्तियों में, सरसर-पंक्तियों में, निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु बप्पिणेसु दीवेसु बिलों में, बिलपंक्तियों में, पहाड़ी झरणों में, भूमि से निकलने समुद्दसु सम्वेसु चैव जलासएसु जलढाणेसु-- एत्थ वाले झरणों में, चिल्ललों में, पल्वलों में, तालाब के किनारे वाली णं बादरवणस्स इकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नता। भूमियों में, द्वीपों में, समुद्रों में, सभी जलाशयों में और सभी जलस्थानों में पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिकों के स्थान कहे गये हैं। उववाएणं सव्वलोए। उपपात की अपेक्षा-सम्पूर्ण लोक में उत्पन्न होते हैं। समुग्घाएणं सव्वलोए। समुद्वात की अपेक्षा- सम्पूर्ण लोक में समुद्घात करते हैं। सट्ठाणेण लोयस्स असंखेज्जइभागे । स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। २३६. प० कहि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं २३६. प्र०-भगवन् ! अपर्याप्त बादर बनस्पतिकायिकों के स्थान ठागा पण्णता? कहाँ कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! जत्थेव बादरवणस्सइकायाणं पज्जतगाणं ठाणा उ०-गौतम ! जहाँ पर्याप्त बादर बनस्पतिकायिकों के स्थान तत्थेव बादरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा हैं वहीं पर अपर्याप्त बादर बनस्पतिकायिकों के स्थान को पण्णत्ता। गये हैं। उववाएणं सवलोए। उपपात की अपेक्षा-सम्पूर्ण लोक में उत्पन्न होते हैं । समुग्घाएणं सव्वलोए। समुद्घात की अपेक्षा- सम्पूर्ण लोक में समुद्घात करते हैं । सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। २४०. प० कहि णं भंते ! सुहमवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं २४०. प्र०-भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सक्षम बनस्पति___अपज्जत्तगाणं य ठाणा पण्णता? कायका स्थान वहाँ है ? उ० गोयमा ! महमवणस्स इकाइया जे य पज्जत्तगा जे य ज -हे आयुष्मान् श्रमण गौतम! सूक्ष्म बनस्पतिकायिक अपज्जत्तगा ते सत्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्व- जो पर्याप्त और अपर्याप्त है वे सब एक समान हैं, वे किसी लोय परियावाणगा पण्णत्ता समणाउसो।' प्रकार की विशेषता वाले नहीं है, वे नाना प्रकार के नहीं है और --ण० पद २. सु० १६०-१६२ वे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। १ २ उत्त० अ० ३६, गाथा १२० । उत्त० अ० ३६, गाथा १०० ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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