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________________ सूत्र २३४-२३७ अधोलोक गणितानुयोग ११५ ५० कहि णं भंते ! सुहुमतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्त- प्र०-भगवन् ! पर्याप्त अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकों के ___ गाण य ठाणा पण्णता? स्थान कहाँ है ? उ० गोयमा ! सुहुमतेउकाइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगाउ० आयुष्मान् श्रमण गौतम ! सूक्ष्म तेजस्कायिक जो पर्याप्त ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरिया- और अपर्याप्त है वे सब एक प्रकार के हैं (समान है), वे किसी वणगा पण्णत्ता समणाउसो ! प्रकार की विशेषता वाले नहीं हैं, वे नाना प्रकार के नहीं है और -पण्ण०, पद० २, सु० १५४-१५६ वे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। वाउकाइयाणं ठाणाई वायुकायिकों के स्थान-- २३५. ५० कहि णं भंते ! बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा २३५. प्र० भगवन् ! पर्याप्त बादर वायुकायिकों के स्थान कहाँ पणत्ता ? कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु घणवाएसु सत्तसु घणवायवलएसु उ० गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से ये सात घनवातों में, सत्तसु तणुवाएसु सत्तसु तणुवायवलएसु । सात धनवातवलयों में, सात तनुवातों में और सात तनुवातवलयों में है। (१) अहोलोए पायालेसु मवणेसु भवणपत्थडेसु भवण- (१) अधोलोक में-पातालों में, भवनों में, भवनप्रस्तटों में, छिद्दसु भवणणिक्खुडेसु निरएसु निरयावलियासु भवन-छिद्रों में, भवन-निष्कुटों में (भवन के भूमिखण्डों में), नरकों णिरयपत्थडेसु णिरयछिद्दसु णिरयणिक्खुडेसु। में, नरक-पंक्तियों में, नरक-प्रस्तटों में, नरक-छिद्रों में और नरक निष्कुटों में हैं। (२) उडढलोए कप्पेसु बिमाणेसु विमाणावलियासु (२) ऊर्ध्वलोक में-कल्पों में, विमानों में, विमान-पंक्तियों विमाणपत्थडेसु विमाणछिद्दसु विमाणणिक्खुडेसु। में, विमान-पस्तटों में, विमान-छिद्रों में और विमान-निष्कुटी (३) तिरियलोए पाईण-पडीण-वाहिण-उदीण सव्वेसु चेव (३) तिर्यक्लोक में-पूर्व-पश्चिम, दक्षिण-उत्तर के लोका लोगागासछिह स लोगनिक्खुडेसु य । एत्थ णं बायर- काश के सभी छिद्रों में और लोकाकाश के सभी निष्कूटों में वाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। पर्याप्त बादर वायुकायिकों के स्थान कहे गये हैं। उववाएणं लोयस्स असंखज्जेसु भागेसु । उपपात की अपेक्षा-लोक के असंख्य भागों में उत्पन्न होते है। समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु । समुद्घात की अपेक्षा-लोक के असंख्य भागों में समुद्घात करते है। सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जेनु भागेसु । स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्य भागों में इनके स्थान हैं। २३६.५० कहि णं भंते ! अपज्जत्तबादरवाउकाइयाणं ठाणा २३६. प्र० भगवन् ! अपर्याप्त बादर वायुकायिकों के स्थान कहाँ पण्णत्ता? कहे गये हैं। उ० गोयमा ! जत्थेव बादरवाउकाइयाणं पज्जत्सगाणं ठाणा उ० गौतम ! जहाँ पर्याप्त बादर वायुकायिकों के स्थान है तत्थेव बादरवाउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। वहीं पर अपर्याप्त बादर वायुकायिकों के स्थान कहे गये है। उववाएणं सवलोए। उपपात की अपेक्षा-सम्पूर्ण लोक में उत्पन्न होते हैं। समुग्धाएणं सव्वलोए , समुद्घात की अपेक्षा-सम्पूर्ण लोक में समुद्घात करते हैं। सट्टाणेणं लोयस्स असंखज्जेसु भागेसु । स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्य भागों में इनके स्थान हैं। २३७. प० कहि णं भंते ! सुहमवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्त- २३७. प्र० भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सक्षम वायकायिक गाणं ठाणा पन्नत्ता? जीवों के स्थान कहाँ कहे गये है ?
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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