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________________ ११४ लोक- प्रज्ञप्ति २३२. ५० कहि णं भंते ! बादरआउवकाइयाणं अपज्जत्ताणं ठाणा २३२. प्र० भगवन् ! अपर्याप्त बादर अपकायिकों के स्थान कहाँ पण्णत्ता ? कहे गये हैं ? १ अधोलोक उ० गोयमा ! जत्थेव बादरआउक्काइयाणं पज्जतगाणं ठाणा तत्थेव बादरआउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं सव्वलोए । समुग्धाएणं सव्वलोए । ट्राचं लोयस्स असं भागे।" २३३. प० कहि णं भंते! सुहुमआउक्काइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं २३३. प्र० भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिकों के ठाणा पण्णत्ता ? स्थान वहाँ कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! सुहुमआउक्काइया जे पज्जतगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोय परियावण्णगा पन्नत्ता समणाउसो ! उ० हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! जो सूक्ष्म अष्कायिक पर्याप्त और अपर्याप्त हैं वे सब एक प्रकार के हैं, किसी प्रकार की विशेषता वाले नहीं है, नाना प्रकार के नहीं है तथा सम्पूर्ण लोक - पण्ण०, पद २, सु० १५१-१५३ में व्याप्त हैं । - निव्यापारणं पम्चरस कम्मभूमीस बाचार्य पश्च पंच महाविदेहे एत्थ णं बादरते उक्काइयाणं पज्जत गाणं ठाणा पण्णता । उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । सूत्र २३१-२३४ बादरते उकाइयाणं ठाणा बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान २३४. प० कहि णं भंते! बादरतेउकाइयाणं पज्जतगाणं ठाणा २३४. प्र० भगवन् ! पर्याप्त बादर तेजस्कायिकों के स्थान पण्णत्ता ? कहाँ है ? उ० गोयमा ! सट्टाणेणं अंतोमणुस्सखेत्ते अड्ढाइज्जेसु दीव समुन्याएवं लोधरस अभागे । सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । प० कहि णं भंते ! बादरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? उ० गोयमा ! जत्थेव बादरतेजकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बादरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता । उबचाए लोस्स दोडका तिरियलोप प समुग्धा सम्बलोए। सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । उ० गौतम ! जहाँ पर्याप्त बादर अप्कायिकों के स्थान हैं। वहाँ पर अपर्याप्त बादर अप्कायिकों के स्थान कहे गये हैं । उत्त० अ० ३६, गाथा ८६ । उपपात की अपेक्षा - सम्पूर्ण लोक में उत्पन्न होते हैं । समुद्घात की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक में सात करते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा -लोक के असंख्यातवें भाग में इनके स्थान हैं। उ० गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से मनुष्य क्षेत्र में हैं अर्थात् अढाई द्वीप समुद्रों में हैं । पन्द्रह कर्मभूमियों में निराबाध हैं। पाँच महाविदेहों में कही है और कहीं नहीं हैं। इनमें पर्याप्त बादर तेजस्कायिकों के स्थान हैं । उपपात की उपेक्षा - लोक के असंख्यातवें भाग में उत्पन्न होते हैं। समुद्घात की अपेक्षा - लोक के असंख्यातवें भाग में समुद्घात करते हैं । स्वस्थान की अपेक्षा - लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । प्र० भगवन् ! अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकों के स्थान कहाँ है ? उ० गौतम ! जहाँ पर्याप्त बादर तेजस्कायिकों के स्थान हैं । वहीं पर अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकों के स्थान हैं । उपपात की अपेक्षा -लोक के दोनों ऊर्ध्व कपाटों में तथा तिर्यक्लोक के तट में (अन्तिम भाग में) उत्पन्न होते हैं। समुद्घात की अपेक्षा - सम्पूर्ण लोक में समुद्वात करते हैं । स्वस्थान की अपेक्षा -लोक के असंख्यातवें भाग में हैं ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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