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________________ ६२ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १३१-१३३ पंकप्पभानेरइयाणं ठाणाई पंकप्रभा के नैरयिक स्थान१३१ : प० [१] कहि णं भते ! पंकप्पमा पुढविनेरइयाणं १३१ : प्र० [१] हे भगवन् ! पंकप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ! [२] कहि णं भंते ! पंकप्पभा पुढविनेरइया परि- [२] हे भगवन् ! पंकप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ पर रहते वसंति ? उ० [१] गोयमा! पंकप्पभाए पुढवीए वीसुत्तरजोयण- उ० [१] हे गौतम ! एक लाख बीस हजार योजन की मोटाई सयसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं वाली पंकप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अन्दर से प्रवेश ओगाहित्ता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता, करने पर नीचे एक हजार योजन छोड़कर एक लाख अठारह मज्झे अटारसुत्तरे जोयणसयसहस्से-एत्थ णं हजार योजन प्रमाण मध्यभाग में पंकप्रभा पृथ्वी के नैरथिकों के पंकप्पभा पुढविणेरइया णं दस णिरयावास- दस लाख नरकावास हैं-ऐसा कहा गया है। सयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं ।' ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा (जाव) ये नरकावास अन्दर से वृत्ताकार हैं, बाहर से चतुष्कोण हैं, असभा णरगेस वेयणाओ-एत्थ णं पंकप्पमा (यावत्) इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ है-इन नरकावासों पूढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा में पंकप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त नरयिकों के स्थान कहे पण्णत्ता। गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, [२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक उत्पन्न होते हैं। समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइमागे, लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं। सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे-तत्य णं लोक के असंख्यातवें भाग में इन नैरयिकों के अपने स्थान है, बहवे पंकप्पमा पुढविनेरइया परिवसंति। इनमें पंकप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं। काला (जाव) णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरति । ये नैरयिक कृष्ण वर्ण वाले हैं (यावत) नरकभयका अनुभव –पण्ण० पद० २, सु० १७१। करते रहते हैं। पंकप्पभाए छ महानिरया पंकप्रभा में छ महानरकावास१३२: चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए छ अवक्कता महानिरया १३२ : चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में छह अपक्रान्त महानरकावास कहे पण्णता, तं जहा गये हैं, यथा(१) आरे, (२) वारे, (१) आर। (२) वार। (३) मारे, (४) रोरे, (३) मार। (४) रोर। (५) रोरुए, (६) खाडखडे । (५) रौरव । (६) खाडखड । -ठाणं० ६, सु० ५१५। धूमप्पभानेरइयाणं ठाणाई१३३ : प० [१] कहि णं भंते ! धूमप्पमापुढविनेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? [२] कहि णं भंते ! धूमप्पभापुढविनेरइया परि- वसंति ? धूमप्रभा के नैरयिक स्थान१३३ : प्र० [१] हे भगवन् ! धूमप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] हे भगवन् ! धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ रहते हैं ? (ख) भग० स० १३, उ० १, सु० १३ । १. (क) ठाणं १०, सु० ७५७ । (ग) सम० १०, सु० ११ । २. जीवा०प० ३, उ० १, सु० ८१ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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