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सूत्र १२६-१३०
अधोलोक
गणितानुयोग
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उ० [१] गोयमा ! सक्करप्पभाए पुढवीए बत्तीसुत्तर उ० [१] हे गौतम ! एक लाख बतीस हजार योजन की
जोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयण- मोटाई वाली शर्कराप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार अन्दर सहस्सं ओगाहित्ता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं प्रवेश करने पर और नीचे एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख वज्जित्ता मज्झे तीसुत्तरे जोयणसयसहस्से-एत्थ तीस हजार योजन प्रमाण मध्यभाग में शर्कराप्रभा पृथ्वी के णं सक्करप्पभा पुढविणेरइयाणं पणवीसं नैरयिकों के पच्चीस लाख नरकावास हैं-ऐसा कहा गया है। णिरयावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं । ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा (जाव) ये नरकावास अन्दर से वृत्ताकार है, बाहर से चतुष्कोण हैं असुभा गरगेसु वेयणाओ।
(यावत्) इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ हैं। एत्थ णं सक्करप्पभा पुढविणेरइयाणं पज्ज- इन नरकावासों में शर्कराप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त त्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता।
नैरयिकों के स्थान कहे गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे,
[२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक उत्पन्न होते हैं। समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे,
लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं। सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइमागे-तत्थ गं बहवे लोक के असंख्यातवें भाग में इन नरयिकों के अपने स्थान हैं सक्करप्पमा पुढविणेरइया परिवसंति । इनमें शर्कराप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं । काला(जाव) णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति । ये नैरयिक कृष्ण वर्ण वाले हैं (यावत) नरक भयका अनुभव
-पण्ण० पद० २, सु० १६६। करते रहते हैं ।
वालुयप्पभा नेरइयठाणाई
वालुकाप्रभा के नैरयिक स्थान१३०प० [१] कहि णं भंते ! वालुयप्पभा पुढविनेरइयाणं १३० प्र० [१] हे भगवन् ! वालुकाप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता?
अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] कहि णं भंते ! वालुयप्पभा पुढविनेरइया परि- [२] हे भगवन् ! वालुकाप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ रहते
वसंति ? उ० [१] गोयमा ! वालुयप्पभाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तर- उ०[१] हे गौतम ! एक लाख अट्ठाईस हजार योजन की
जोयणसयसहस्स बाहल्लाए उरि एगं जोयण- मोटाई वाली वालुकाप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन सहस्सं ओगाहेत्ता हेढा वेगं जोयणसहस्सं अन्दर प्रवेश करने पर और नीचे एक हजार योजन छोड़ने पर एक वज्जेत्ता मज्झे छन्वीसुत्तरे जोयणसयसहस्से- लाख छब्बीस हजार योजनप्रमाण मध्यभाग में वालुकाप्रभा पृथ्वी एत्थ णं वालयप्पभा पुढविनेरइयाणं पण्णरस के नैरयिकों के पन्द्रह लाख नरकावास है-ऐसा कहा गया है। निरयावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं ।' ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा (जाव) ये नरकावास अन्दर से वृत्ताकार हैं बाहर से चतुष्कोण हैं। असभा णरयेस वेयणाओ-एत्थ णं वालुयप्पभा (यावत्) इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ है-इन नरकावासों पढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा में वालुकाप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त पथा अपर्याप्त नरयिकों के स्थान पण्णत्ता।
कहे गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे,
[२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक उत्पन्न होते हैं। समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे,
लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं । सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जहभागे-तत्य णं लोक के असंख्यातवें भाग में इन नैरयिकों के अपने स्थान बहवे वालुयप्पभा पुढविनेरइया परिवसंति। हैं। इनमें वालुकाप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं। काला (जाव) णरगमयं पच्चणुभवमाणा ये नैरयिक कृष्ण वर्ण वाले हैं (यावत) नरक भयका अनुभव विहरंति। -पण्ण० पद० २, सु० १७०। करते रहते हैं।
(ख) भग० स० १३, उ० १, सु० १० ।
(क) सम० २५, सु०४।। २. जीवा०प०३, उ०१, सु०८१। ,
भग० स०१३, उ०१, सु० १२ ।
४. जीवा० प० ३, उ०१, सु० ८१ ।