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________________ ६० लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १२७-१२६ [२] कहि णं भंते ! रयणप्पभापुढविणेरइया परिवसंति? [२] हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ रहते हैं ? उ०[१] गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए असी- उ० [१] हे गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन की उत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एगं मोटाई वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार अन्दर जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेद्रा वेगं जोयण- प्रवेश करने पर और नीचे एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख सहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अगृहत्तरे जोयणसयसहस्से अठत्तर हजार योजनप्रमाण मध्यभाग में रत्नप्रभा पृथ्वी के एत्थ णं रयणप्पभापुढविणेरइयाणं तीसं णिरया- नैरयिकों के तीसलाख नरकावास हैं - ऐसा कहा गया है। वाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं ।' ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, (जाव) ये नरकावास अन्दर से वृत्त (गोल) हैं, बाहर से चतुष्कोण असुभा णरगेसु वेयणाओ। हैं (यावत्) इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ है। एत्थ णं रयणप्पभापुढविणेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्ज- इन नरकावासों में रत्नप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त ताणं ठाणा पण्णत्ता। नरयिकों के स्थान कहे गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, [२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक उत्पन्न होते हैं। समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइमागे, लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं। सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे-एत्य णं बहवे लोक के असंख्यातवें भाग में इन नैरयिकों के अपने स्थान हैं। रयणप्पभापुढविणेरइया परिवसंति। इनमें रत्नप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं । काला (जाव) गरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति। (ये नैरयिक) कृष्ण वर्ण वाले हैं (यावत्) नरकभयका अनु भव करते हैं। -षण्ण० पद० २, सु० १६८ । रयणप्पभाए छ महानिरया रत्नप्रभा में छ महानरकावास१२८: जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणमिमीसे रयण- १२८ : जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत की दक्षिण दिशा की प्पभाए पुढवीए छ अवक्कंतमहानिरया पण्णत्ता, तं जहा- ओर रत्नप्रभा पृथ्वी में छह अपक्रान्त (अत्यन्त निकृष्ट) महा नरकावास कहे गये हैं, यथा(१) लोले, (२) लोलुए, (१) लोल । (२) लोलुक । (३) उदड्ढे, (४) निदड्ढे, (३) उद्दग्ध । (४) निर्दग्ध । (५) जरए, (६) पज्जरए। (५) जरक। (६) और प्रजरक। -ठाणं०६, सु० ५१५॥ सक्करप्पभा नेरइयठाणाई१२९ : प० [१] कहि णं भंते ! सक्करप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? [२] कहि णं भंते ! सक्करप्पभापुढविनेरइया परिवसंति? शर्कराप्रभा के नैरयिक स्थान१२६ :प्र० [१] हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ रहते हैं ? १. (क) सम० ३०, सु०८। (ख) भग० स० १३, उ० १, सु०४। (ग) भग० स० २, उ० ५, सु० २। २. जीवा०प० ३, उ० १, सु० ८१ । (घ) भग० स० ६, उ० ६, सु० १ [१-२] । (ङ) भग० स० २५, उ० ३, सु० ११४ । (च) सम० सु० १४६, १५० ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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