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________________ सूत्र १६५ गिव्हित्ता गंव पुखरोदे समूह तेथेच उपागच्छति उया गच्छताहति गिरिला जाई तत्थ उप्पलाई जाव-सहस्वपसाई लाई गति मि खेते, जेणेव भर हेरवयाई वासाई, जेणेव मागध-वरदाम भासाई तित्थाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तित्थोदगं गिति गति मिति । 1 तिर्यक् लोक : विजयद्वार " गण्हित्ता जेणेव गंगा-सिंधु-रत्ता-रत्तवई सलीला तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सरितोदगं गेव्हंति, गिव्हित्ता उभओ तडमट्टियं गेहति । - गेव्हित्ता जेणेव चुल्ल हिमवंत सिहरि वासघरपन्चया तेजेय उवागच्छति, उपागच्छत्ता सय्यात्वरे य, सव्य पुष्य, सत्र गंधे य, सव्व मल्ले य, सव्वोसहिसिद्धत्थए गिव्हंति, सव्वोस हिसिद्धत्थए गिव्हित्ता जेणेव पउमद्दह पुण्डरीयद्दहा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता दहोदगं गेव्हंति, गेव्हित्ता जाई तत्थ उपलाई जाय सहस्यसाई ताईयेति । उवागच्छत्ता जाई तत्थ उप्पलाई जाव-सयस हस्तपत्ताई ताई हंति, हित्ता जेणेव हरिवासे रम्मावासे ति, जेणेव हकंत-किंत परतणारिकताओ सतिलाओ तेणें उबा गच्छति, उवागच्छित्ता सलिलोदगं गिव्हंति, गेव्हित्ता उभओ मट्टियं हति लाई हिसाव हेमवय-हरणाई यासाई, जेणेव रोहिय रोहिस सुवणकूल रायलाओं तेच उपागच्छति वागच्छता सलिलोदगं गण्हंति, गेव्हित्ता उभओ तडमट्टियं मेति हिला जेनेव सहावाति मालवंत-परियाली वेतड्ढ पब्वया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सव्वतूवरे य, सिद्धत्वए यहति हिला जेणेव महाहिमवंत - रुप्पिवासघरपव्वया उवागच्छंति, उगति सव्वपुष्फे तं चैव महा पउमद्दह महापुण्डरीयद्दहा तेणेव उवागच्छति । हित्ता जेणेव विडावइ-गंधावइ वट्ट वेयड् पव्वया तेणेव उवागच्छंति, उवार्गाच्छत्ता सव्वतूवरे य- जाव सध्वोस हि सिद्धस्थातिष्टिता जेणेव सिह गीलवंत बाहर पन्या तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, सव्वतूवरे य-जावसव्वीस हिसिद्धत्थए य गण्हति । गेष्टिता जेणेव तिगिष्य केसरिया व उद्यागच्छति, उवागच्छत्ता जाई तत्थ उप्पल इं-जाव-सय सहस्सपत्ताई ताई गणितानुयोग १७५ सबको लिया, उन्हें लेने के बाद जहाँ पुष्करौदधि था वहाँ आये वहाँ आकर पुष्करोवक ग्रहण किया, ग्रहण करके वहाँ जितने भी उत्पल - यावत् — शतदल - सहस्रदलकमल थे, उनको लिया, लेकर फिर वे जहाँ मनुष्य क्षेत्र था, उसमें भी जहाँ भरत और ऐरावत क्षेत्र थे, जहाँ मागध, वरदाम, प्रभास आदि तीर्थ थे, वहाँ आये, वहाँ आकर तीर्थोदक पात्रों में भरा, भरकर तीर्थों की मिट्टी ली । मिट्टी लेने के बाद जहाँ गंगा, सिंधु, रक्ता रक्तवती महानदियाँ थीं, वहाँ आये, वहाँ आकर सरितोदक पात्रों में भरा, सरितोदक लेकर नदियों के दोनों तटों की मिट्टी ली। मिट्टी लेकर फिर जहाँ क्षुद्र हिमवान और शिखरी नामक अधर पर्वत वहां आये, वहाँ आकर समस्त ऋतुओं की और रस विशेषों से युक्त वस्तुओं को समस्त पुष्पों को, समस्त गंधों को, समस्त मालाओं को, समस्त औषधियों और सिद्धार्थ को सरसों को लिया, समस्त औषधियों और सरसों को लेकर जहाँ पद्मद्रह, डरिक थे वहां आये, वहाँ आकर ब्रहोदक लिया और वहां जितने भी उत्पल - यावत् — शत सहस्रदल कमल थे, उनको लिया । उनको लेने के बाद जहां मयत व क्षेत्र थे, जहां रोहित-रोहितांस क्षेत्र युवकूला, रूप्यकूला, नदियाँ वहाँ आये, वहाँ आकर नदियों का जल भरा और दोनो तटों की मिट्टी मिट्टी लेने के बाद जहाँ शब्दापात, माल्यवंत, प्रयाग, वृत वैताढ्य पर्वत थे, वहाँ आये, वहाँ आकर सर्व रस विशेधों से युक्त वस्तुओं यावत् समस्त औषधियों और सरसों को लिया, लेने के बाद जहां महाहिमवन्त और रूप्य वर्णधर पर्वत थे ये वहाँ आकर समस्त पुष्पों आदि को लिया और उसी प्रकार से जहाँ महापद्म, महा पुण्डरीकद्रह से यहां आये। " वहाँ आकर जितने वहाँ उत्पल थे— यावत् -शत सहस्र कमल थे, उनको लिया, उनको लेकर जहाँ हरिवर्ष, रम्यक वर्ष थे, जहाँ हरकांता, हरिकांता, नरकांता, नारीकांता नदियां थीं वहाँ आये, वहाँ आकर नदियों का जल पात्रों में लिया, जल लेकर उन नदियों के दोनों तटों की मिट्टी ली। मिट्टी लेने के बाद जहाँ विकटापति, गंधापति, वृत्तवैताढ्य पर्वत थे, वहाँ आये, वहाँ आकर सर्वरस विशेषों से युक्त सर्व तुओं में उत्पन्न वस्तुओं यावत् समस्त अधिव सिद्धार्थकों को लिया, उसके बाद जहाँ निषेध, नील नामक वर्षवर पर्वत थे वहाँ आये. आकर सर्व ऋतुओं के उत्तम पुत्रों - यावत्समस्त औषधियों और सर्वयों को लिया । सर्पों को लेने के बाद जहाँ तिगिच्छद्रह, केशरीद्रह थे वहाँ आये, वहाँ आकर उन्होंने वहाँ जितने उत्पल - यावत् - शत
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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