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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
सूत्र १६५
(४) असहस्सं सुवण्ण-रुप्पामयाणं कलसाणं,
(४) एक हजार आठ स्वर्ण और चांदी के कलशों की, (५) अट्ठसहस्सं सुवण्ण-मणिमयाणं कलसाणं,
(५) एक हजार आठ स्वर्ण और मणियों के कलशों की, (६) अट्ठसहस्सं रुप्पामणिमयाणं कलसाणं,
(६) एक हजार आठ चाँदी और मणियों के कलशों की, (७) अट्ठसहस्सं सुवण्ण-रुप्पामयाणं कलसाणं,
(७) एक हजार आठ स्वर्ण और चांदी के मिश्रित कलशों की, (८) अट्ठसहस्सं भोमेज्जाणं कलसाणं,
(८) एक हजार आठ मिट्टी के कलशों की, (6) अटुसहस्सं भिगारगाणं,
(६) एक हजार आठ भृङ्गारकों-झारियों की, (१०) अट्ठसहस्सं आयंसगाणं,
(१०) एक हजार आठ आदर्शकों-दर्पणों की, (११) अट्ठसहस्सं थालाणं,
(११) एक हजार आठ थालों की, (१२) अट्ठसहस्सं पातीणं,
(१२) एक हजार आठ पात्रियों की, (१३) अट्ठसहस्सं सुपइट्ठगाणं',
(१३) एक हजार आठ सुप्रतिष्ठकों-बाजोटों की, (१४) अट्ठसहस्सं चित्ताणं, '
(१४) एक हजार आठ चित्रों की, (१५) अट्ठसहस्सं रयणकरंडगाणं,
(१५) एक हजार आठ रत्न करंडकों की, (१६) अटुसहस्सं पुष्फचंगेरीणं-जाव-लोमहत्थ चंगेरीणं, (१६) एक हजार आठ पुष्पचंगेरिकाओं की-यावत्-लोमहस्त
(मयूर पिच्छ) चंगेरिकाओं की, (१७) असहस्सं पुष्फपडलगाणं-जाव-लोमहत्थ पडलगाणं, (१७) एक हजार आठ पुष्पपटलों की-यावत्-लोमहस्तपट
लकों की, (१८) अट्ठसयं सीहासणाणं,
(१८) एक सौ आठ सिंहासनों की, (१६) अट्ठसयं छत्ताणं,
(१६) एक सौ आठ छत्रों की, (२०) अट्ठसयं चामराणं,
(२०) एक सौ आठ चामरों की, (२१) अट्ठसयं अवपडगाणं,
(२१) एक सौ आठ अधपट्टकों की, (२२) अट्ठसयं वट्टकाणं,
(२२) एक सौ आठ वर्तकों की, (२३) अट्ठसयं तवसिप्पाणं,
(२३) एक सौ आठ तप सिप्रों की, (२४) अट्ठसयं खोरकाणं,
(२४) एक सौ आठ क्षोरकों की-कटोरों की, (२५) अट्ठसयं पीणकाण,
(२५) एक सौ आठ पीणकों की-समचतुरस्र पात्र विशेषों की, (२६) अट्ठसयं तेल्लसमुग्गकाणं,
(२६) एक सौ आठ तैल समुद्गकों की, (२७) अट्ठसयं धुवकडुन्छुयाणं विउव्वंति।
(२७) एक सौ आठ धूप कडुच्छकों की विकुर्वणा की। ते साभाविए विउविए य कलसे य-जाव-धूवकडुच्छुए य इन सबको स्वाभाविक रूप से विकुर्वित हुए कलशों कोगेण्हंति, गेण्हित्ता विजयाओ रायहाणीओ पडिनिक्खमंति, यावत्-धूपकडुच्छकों को लिया, लेकर विजया राजधानी में से पडिनिक्खमित्ता ताए उक्किट्ठाए-जाव-उद्धृत्ताए दिव्वाए देव- निकले, निकलकर वे अपनी इस उत्कृष्ट-यावत्-उद्धृत दिव्य गईए तिरियमसंखेज्जाणं दीव-समुद्दाणं मज्झं मझेणं वीयी- देवगति से तिर्यग् असंख्यातद्वीप समुद्रों के बीच में से होकर चलते वयमाणा वीयोवयमाणा जेणेव खीरोदे समुद्दे तेणेव उवा- हुए-चलते हुए जहाँ क्षीरोदधि समुद्र था वहाँ आये, वहाँ आकर गच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता खीरोदगं गिण्हंति, गिण्हित्ता क्षीरोदक को पात्र में भरा, क्षीर सागर के जल को लेकर जितने जाई तत्थ उप्पलाइं-जाव-सयसहस्सपत्ताई ताई गिण्हंति, भी वहाँ पर उत्पल-यावत्-शतपत्र, सहस्रपत्र, कमल थे उन
__ आगमोदय समिति से प्रकाशित जीवाभिगम मलयगिरि आचार्यकृत टीका की प्रति पृ० २३८ सू० २४१ के मूल पाठ में-- 'सुपतिटकाणं' के बाद 'चित्ताण' है, किन्तु पृ० २४४ के पृष्ठ भाग पर टीका में 'सुप्रतिष्ठ' के बाद 'मनोगुलिका' और वातकरक'
ये दो शब्द अधिक हैं । तथा इनके बाद 'चित्त' शब्द है। २ मूल पाठ में- 'चामरागं' के बाद "अवपडगाणं, वट्टकाणं तवसिप्पाणं, खोरकाणं, पीणकाणं' इतने शब्द हैं और इनके बाद 'तेल्लसमुल्लगकाणं' है, किन्तु टीका में—'चामर' के बाद केवल 'समुद्गक' और 'ध्वज' ये दो शब्द हैं, अतः स्पष्ट है कि आगमोदय समिति से प्रकाशित मुल पाठ में और टीकाकार के सामने जो पाठ था, उसमें पाठ भेद है।