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लोक- प्रज्ञप्ति
तिर्यह लोक विजयद्वार
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जेणेव सव्व चक्कवट्टि विजया, जेणेव सव्वमागह वरदामभासाई तित्थाई तहेव ।
गेव्हंति, गेव्हित्ता जेणेव पुष्व विदेहावर विदेह वासाई, जेणेव सहस्र पत्र कमल थे, उनको लिया, उनको लेकर जहाँ पूर्वविदेह सोयासीओयाओ महाणईओ जहा णईओ । और पश्चिमविदेह क्षेत्र थे, जहाँ सीता और सीतोदा महानदियाँ थीं ।
जेणेव सव्ववक्खारपव्वया सव्व तुवरे य, जेणेव सव्वंतरईओ सलोलोि
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जेणेव मंदरे पथ्वए, जेणेव भद्दसालवणे तेणेव उवागच्छंति सव्व तुरेवासहिसिए विति व्हित्ता जेणेव णंदणवणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सव्व तुवरे बजार-सोस हसिए व सर व गोसीसचंद गिति गव्हा जेवसोमवतेमेव उपागच्छति उपागच्छता सव्व तुवरे य-जाव सव्वोस हिसिद्धत्थ य सरसं च गोसीस चंदणं दिव्वं च सुमणदामं गण्हंति, गण्हित्ता जेणेव पंडगवणे तेणेव उवागच्छति उबागडित सय बरे बजाय सय्यो सहिसिद्धत्थे य सरसं च गोसीस चंदणं दिव्वं च सुमणदामं दमल सुगंधिएव गंधेति ।
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गेव्हित्ता एगओ मिलति मिलित्ता जंबुद्दीवस्स पुरत्थि - मिल्लेणं दारेणं णिगच्छंति, णिगच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव दिखाए देखाईए तिरियमसंखेागं दीव-समुदाचं मां मज्झंमझेणं वीईवयमाणा वीईवयमाणा जेणेव विजया रायहाणी तेणेव उवागच्छित्ता तेच उपागच्छति उपागता विजय रायहानि अनुष्य
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ग्राहिणं करेमाणा करेमाना जेणेव अभिसेसमा जिए देवे व उपागच्छति उबागन्छिला करयल परिगहि तेणेव सरसावतं मत्थए अंजलि कट्टु नए विजयद्धति विजयदेवरस महत्महत्वं महरिहं विपुलं अभियं उट्ठति ।
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१६६. तए णं तं विजयदेवं चत्तारि य सामाणिय साहस्सीओ चत्तारि अगमसिओ सपरिवाराओ तिमि परिमाओ मत्त अणिया, सत्त अणियाहिवई, सोलस (आयरक्खदेवसाहस्सीओ अन्ने य यहवे विजय रायहाणियाणमंत देवाय देवीओ व तेहि सामाविएहि उत्तरवेखिएहि य दरकमलपाहि सुरभियारिदिन चलाएहि आकंड
सूत्र १६५ - १६६
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जहाँ सर्वं चक्रवर्तियों के विजेतव्य विजय थे, जहाँ पर सर्व मागध, वरदाम, प्रभास आदि तीर्थ थे वहाँ से जैसे पूर्व नदियों का जल, मिट्टी, कमल आदि लेने का वर्णन किया गया है, वैसा इन नदियों हदों, तीथों के जल लेने आदि का सर्व वर्णन यहाँ भी कर लेना चाहिए ।
जहाँ वक्षस्कार पर्वत थे, वहाँ आये और वहाँ आकर सर्व ऋतुओं के पुष्यादिकों को लिया, फिर जहां सर्व अन्तर्वर्ती नदियां थीं वहाँ आये। वहाँ से भी पूर्व की तरह जल, दोनों तटों की मिट्टी आदि ली, इत्यादि का वर्णन करना चाहिये ।
तत्पश्चात् जहाँ मन्दर पर्वत था और उसमें भी जहाँ भद्रशाल वन था, वहाँ आये और वहाँ से भी रस प्रधान सर्वऋतुओं के पुष्पों फलों - यावत्- सर्व औषधियों और सिद्धार्थकों को लिया, लेने के बाद जहाँ नन्दनवन था वहां आये और यहाँ आकर सब ऋतुओं के पुष्पों फलोंघावत् सर्व औषधियों और सिद्धार्थकों को लिया, तथा सरस गोशीर्ष चन्दन को लिया, चन्दन को लेकर जहाँ सौमनसवन था वहाँ आये, वहाँ आकर सर्व ऋतुओं के पुष्पों पलों आदि को यावत् सवं औषधियों और सिद्धा सरसों और सरस गोशीर्ष चन्दन एवं दिव्य सुमन मालाओं, मलयचन्दन की गंध से मिश्रित अत्यन्त सुगन्धित गन्धद्रव्यों को लिया ।
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इन सबको लेकर वे सब एक स्थान पर एकत्रित हुए, एकत्रित होकर जम्बूद्वीप के पूर्वद्वार से निकले, निकलकर वे अपनी उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से तिर्यगू असंख्यात द्वीप समुद्रों के बीचोंबीच से चलते हुए जहाँ विजया राजधानी भी यहां आये, वहाँ आकर विजया राजधानी की प्रदक्षिणा करते हुए जहां अभिषेक सभा थी, उसमें भी जहाँ विजयदेव था, वहां आये, वहाँ आकर दोनों हाथों को जोड़कर और मस्तक पर आवर्त कर के अंजलिपूर्वक जय-विजय शब्दों के द्वारा बधावा, और फिर विजय देव के अभिषेक की वह महार्थक, महामूल्यवान, महान पुरुषों के योग्य और विपुल सामग्री सामने रखी।
१६६. तदनन्तर (अभिषेक सामग्री उपस्थित करने के बाद ) चार हजार सामानिक देवों, अपने परिवार सहित चार अयमहिषियों, तीन परिषदाओं, सातों प्रकार की अनीक-सेनाओं, सातों अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा विजयाराजधानी के निवासी और दूसरे भी अनेक वागयंतर देव-देवियों ने उन स्वाभाविक और उत्तर विक्रिया करके आभियोकि देवों द्वारा उपस्थित श्रेष्ठ कमलों के ऊपर स्थापित सुगन्धित श्रेष्ठ जस से पूर्ण रूपेण भरे हुए, चन्दन के लेप से चित्रित (अर्थात् जिन पर