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________________ सूत्र १६६-१६७ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गुहपमुपलपिहाणे करयल सुकुमाल कोमल परिग्गहिएहि अट्ठ सहस्ताणं सोनियाणं कससाणं जाव अट्ठ सहस्साणं भोमेयाणं कलसाणं सध्योदहि सत्यमट्टियाहि सम्वतुवरेह यादवसहि सम्बिदीए सम्बसीए सम्बले सव्वसमुदएण सव्वायरेणं सव्वविभूतिए सव्वविभूसाए सव्व संभ्रमेणं सय्योरोहेणं सध्यास पुष्क-गंध-मल्लाकार बिसाए, सम्यदिव्यडियाए महया डीए महया जुतीए महाबले महया समुदए, महया यजमग समय-पव्यवाइयर ---मंझिलर खरमुह मुरव-मुयंग- दुन्दुहिहुडुक्कणिग्घोस संनिनादियर वेणं महया इंदाभिसेगंणं अभिसिति । , महया अप्पेगइया देवा णच्चोदगं णातिमट्टियं पविरलफुसियं दिव्वं सुरभि रखरेयिणासणं गंधोदवा वासंति । अमेगा देवा निपत्यं परमं मरणं पसंतर उवसंतरयं करेंति । १७. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स महया महया इंदाभिसेगंसि १९७ तत्पश्चात् जब इस प्रकार के अतिशय प्रभावक भव्य यमाणंसिसमारोहपूर्वक इस विजय देव का इन्द्राभिषेक हो रहा था तब अप्पेवा देया विजयं रायहाणि सम्मितर बाहिरियं आसिय सम्मन्जिवलितं सित्तमुहसम्मरत्वं तरायणवीहि करेंति । अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि मंचातिमंचकलियं करेंति, अयेगा देवा विजयं रामहाग पाणाबिहरागरजिय ऊसिय जयविजय - वेजयंती- पडागातिपडाग मंडियं करेंति । गणितानुयोग १७७ अप्पेगइया देवा विजय रायहानि लाउलोडयमहियं करेति, अयेगा देवा विजय राष्हाणि योसीस सरसर चंद हरदिष्ण पंति करेति । चन्दन के लेप के थापे लगे हुए हैं) जिनके कंठों में सूत - कलावा (पंचरंगा यूत) बँधा हुआ है, पद्मकमलों के ढक्कन से ढके हुए और सुकुमाल कोमल हस्ततलों (हवेलियों में धारण किये हुए) ऐसे एक हजार आठ सौर्वाधिक (स्वर्ण से बने हुए कलशयावत् एक हजार मिट्टी के कलशों से तथा सभी महानदियों, ग्रहों तीर्थं सरोवरों, अन्तत नदियों आदि के जल और इन-इनके अन्तर्वर्ती सटों की मिट्टी से एवं सभी ऋतुओं के पुष्पों फलों यावत्सर्व औषधियों और सिद्धार्थकों आदि रूप अभिषेक सामग्री से तथा अपनी समस्त ऋद्धि, समस्त यति-कांति, समस्त सेना, समस्त परिवार आदि के साथ अत्यधिक आदरपूर्वक एवं समस्त विभूति, विभूषा, औत्सुक्य, अन्तःपुर सहित तथा अनेक प्रकार के नाटकों-उत्सवों के साथ, समस्त पुष्पों, गंधों, मानाओं और अलंकारों आदि के द्वारा की गई विभूषा - सजावट के साथ, समस्त दिव्य वाद्यों के निनाद पूर्वक, महान् ऋद्धि, महान् द्य ुति, महान् बल, महान् अभ्युदय एवं निपुण पुरुषों द्वारा एक साथ बजाये जा रहे उत्तम वायों की ध्वनि तथा स प्रणव दोल-पट-नगाडा मेरी, शत्तरी, खरमुखी (वाद्य विशेष), मुरज, मृदंग, दुन्दुभि हुडुक्क - तबला आदि वाद्यों के समुदाय की निनाद ध्वनि पूर्वक बड़े ठाट-बाट से उस विजय देव का इन्द्राभिषेक किया । 1 कितने ही देव जिसमें न तो अधिक जल का उपयोग होता हैं, और न कीचड़ होता है, इस प्रकार से रिमझिम रिमझिम फुहारों के रूप में धूलि-मिट्टी को उपशमित करने के लिये दिव्य सुगंधित गंधोदक की वर्षा करते हैं । कितने ही देव उस विजय राजधानी को नितरत्र वाली, नष्टरज वाली, भ्रष्टरज वाली, प्रशांत रज वाली और उपशांत रज वाली करते हैं, बनाते हैं । कतिपय देव उस विजय राजधानी में भीतर-बाहर (सब तरफ) जल का छिड़काव कर साफ-सुथरा कर और लीप-योतकर गलियों, बाजारों रास्तों को भली भांति शुद्ध पवित्र बनाते हैं। कुछ एक देव विजया राजधानी को मंवातिमंच युक्त करते हैं । कितनेक देव विजया राजधानी को अनेक प्रकार के रंगों से रंगी हुई ( रंगबिरंगी ) जय-विजय सूचक और फहराती हुई विविध आकार-प्रकार वाली विजय वैजयन्ती पताकाओं से मंडित करते हैं । कितनेक देव विजया राजधानी को गोवर आदि से लीपते हैं । कितनेक देव विजया राजधानी को सरस गोशीर्ष, रक्त चन्दन एवं दद्दर चन्दन के लेप के थापों से मंडित करते हैं ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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