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________________ १७८ लोक- प्रज्ञप्ति अश्या देवा विजय रायहाणि उपथियदणक चंद घडसुकय-तोरण- पडिदुवारदेसभागं करेंति । तियं लोक विजयद्वार अध्येमइया देवा विजयं रायहाणि आसतोत्त- विपुल-बट्टवग्घारिय-मल्लदामकलावं करेंति । अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि पंचवण्ण-सरस-सुरभिमुक्क पुरोवारकलियं करेति । अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि कालागुरु-पवर कुन्दुरुक्क तुकांत मयमत-गंधाभिरामं सुगंधवरगंधियं वयं करेति । अप्पेश्या देवा हिरण्णवासंति अश्या देवा वणवा वासंति एवं रयणवासं वइरवासं पुप्फवासं मल्लवासं गंधवासं कृष्णवास स्पवास आहरणवास वासंति अगइया देवा हिरणविहि माईति । एवं सुवणविहिं रयणविहि व इरविहिं पुप्फविहि मल्ल विहि, विधिवत्यविहि आभरणविहि भाइति अमेगा देवा हु सहि उपति । अप्पेगइया देवा बिलंबियं णट्टविहि उवदंसेति । अप्पेगइया देवा दुय बिलंबियं णट्टविहि उवदंसेंति । एवं अंचियं णट्टविहि, रिभियं णट्टविहि, अंचियरिभियं विहि दिव्यं विहिं आरभट्टविहि भसोलं पट्टविहिं आरभड-भसोलं णट्टविहि, उप्पाय- णिवायपवृत्तं णट्टविहि, संकुचियासारखं विहिं रिपारियं निहित णट्टविहि, संभंत नाम दिव्यं विहि उयति । अप्पेगा देवा उावात तं जहा (१) ततं, (२) विततं, (३) घणं, (४) झुसिरं । अप्पेगइया देवा चउव्विहं गेयं गायंति, तं जहा - ( १ ) (२), (३) मंदा (४) रोहदावसा अप्पेगा देवा अभिनय अभियंति सं जहा(१) दितियं (२) पति (३) सामंतोणिवाहयं (४) लोगमज्झावसाणियं । 7 , 1 - अप्पेगा देवा पीति, अयेगा देवा बुक्कारेति, अश्या देवाडति अगा देवा सासेति अप्पेवा देवा पीति, बुक्कारेंति, तंडवेंति, लासेंति । सूत्र १६७ कितने ही देव विजया राजधानी के प्रत्येक घर के द्वार को चन्दन के कलशों और चन्दन के घटों से निर्मित तोरणों से मंडित करते हैं । कितने ही देव विजया राजधानी को लटकती हुई बड़ी-बड़ी गोलाकार पुष्पमालाओं से श्रृंगारित करते हैं । कितने ही देव विजया राजधानी को पंचरंगे सरस सुगंधित पुष्पों के जों (गुलदस्तों से सजाते हैं। कितने ही कुन्दुर, देव विजया राजधानी को काले अगर, श्रेष्ठ धूप का अग्नि में प्रवेश करने पर महकती हुई गंध के उड़ने से मनमोहक और श्रेष्ठ सुगंध की गंधयतिका (अगरबत्ती) जैसी बनाते हैं। * कितने ही देव चांदी की वर्षा बरसाते हैं। कितने हो देव स्वर्ण की वर्षा करते हैं। इसी प्रकार रत्नवर्षा, वज्ररत्नवर्षा, पुष्पवर्षा, माल्यवर्षा, गंधवर्षा, चूर्णवर्षा, वस्त्रवर्षा, और आभरण वर्षा बरसाते हैं । कितने हो देव चाँदी का दान देते थे । इसी प्रकार कितने ही देव स्वर्णदान, रत्नदान, वज्ररत्नदान, पुष्पदान मात्यदान, सुगन्धित पूर्णदान संप्रदान, वस्त्रदान, आभरण दान देते हैं । कितने ही देव द्रुत नाट्यविधि का प्रदर्शन करते हैं । किसने हो देव विविनविधि का प्रदर्शन करते हैं। कितने ही देव द्रुतविलम्बित नाट्यविधि का प्रदर्शन करते हैं । "इसी प्रकार कितने ही देव अंचित नाट्यविधि का, रिभित नाट्यविधि का अंचित-रिचित नाट्यविधि का दिव्य नाय विधि का आरभट नाट्यविधि का भसोल नाट्यविधि का, आरभट कसोल नाट्यविधि का उत्पातनिपात प्रयुक्त नाट्य विवि आरभट-सोल का, संकुचित-प्रसारित नाट्यविधि का गमनागमन रूप नाट्यविधि का भ्रान्त संभ्रान्त नामक दिव्य नाट्य विधि का प्रदर्शन करते हैं। " कितने ही देव चार प्रकार के वाद्यों को बजाते हैं, यथा(१) (२) वितत (३) पन, (४) विर 1 , कितने ही देव चार प्रकार के गीतों को गाते हैं, यथा (१) उत्क्षिप्त, (२) प्रवृत, (३) मंद, (४) रोचितावसान | कितने ही देव चार प्रकार के अभिनयों का अभिनय करते हैं, यथा- (१) (२) पाठांतिक, (३) सामंतोनि पातिक, (४) लोकमध्यावसान्तिक कितने ही देव अपने शरीर का खूल आकार बनाते हैं, कितने ही देव गर्जना करते हैं, कितने ही देव तांडव नृत्य करते हैं, कितने ही देव नृत्य करते हैं, और कितने ही देव अपने शरीर को मांसल बनाते हैं, गर्जना करते हैं, तांडवनृत्य करते हैं और नृत्य करते हैं ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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