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सूत्र १०५६-१०६०
तिर्यक्लोक : ज्योत्स्ना आदि के लक्षण
गणितानुयोग
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१६. एगे पुण एवमाहंसु
(१६) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, ता वालग्गपोतिया संठिया चंदिम-सूरियसंठिती चन्द्र-सूर्य की बालाग्रपोतिकाकार (आकाश गंगा में क्रीडागृह पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु,
के लिए लघु प्रासाद) जैसी संस्थिति है । तत्थ जे ते एवमाहंसु
इनमें से जो यह कहते किता समचउरंस-संठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, "चन्द्र-सूर्य की समचतुरस्र संस्थिति है" यह कथन नययुक्त है एएणं गएणं णेयव्वं; णो चेव णं इयरेहि
अतएव मान्य है, अन्य मान्यताएँ मान्य नहीं हैं ।
-सूरिय. पा. ४, सु० २५ दोसिणाइया णं लक्खणा
ज्योत्स्ना (आतप-अन्धकार) आदि के लक्षण६०. १. ५०–ता कहं ते दोसिणा लक्खणा? आहिए ति वएज्जा, ६०. (१) प्र०-ज्योत्स्ना का क्या लक्षण है ? कहें, उ०–ता चंदलेसाई य दोसिणाई य,
उ०-चन्द्र की लेश्या ही ज्योत्स्ना है। २. ५०-दोसिणाई य चंदलेसाई य के अट्ठ, कि लक्खणे ? (२) प्र०-ज्योत्स्ना और चन्द्र लेश्या का क्या अर्थ है और
क्या लक्षण है ? उ०–ता एगट्ठ एग लक्खणे,
उ०-इन दोनों का अर्थ एक है और एक ही लक्षण है। १. ५०-ता कहं ते सूरलेस्सा लक्खणो? आहिए त्ति वएज्जा, (१) प्र०-सूर्य लेश्या का क्या लक्षण है ? कहें, ___ उ०–ता सूरलेस्साई य आयवेई य,
उ०—सूर्य की लेश्या ही आतप है, २. ५०-ता सूरलेस्साई य, आयवेई य के अट्ठ किं लक्खणे? (२) प्र०-सूर्य लेश्या और आतप का क्या अर्थ है और
क्या लक्षण है? उ०–ता एगट्ठ', एगलक्खणे,
उ०-इन दोनों का अर्थ एक है और एक ही लक्षण है । १.५०-ता कहं ते छाया लक्खणे ? आहिए त्ति वएज्जा, (१) प्र०-छाया का क्या लक्षण है ? कहें, __उ०-ता छायाई य, अंधकाराई य,
उ०-छाया ही अन्धकार है । २. ५०–ता छायाई य अंधकाराई य के अ? किं लक्खणे? (२) प्र०-छाया और अन्धकार का क्या अर्थ है और क्या
लक्षण है ? उ०–ता एगट्ठ', एगलक्खणे।
उ०-इन दोनों का अर्थ एक है और एक ही लक्षण है। -सूरिय. पा. १६, सु. ८७
१ बालाप्रपोतिका शब्दो देशीशब्दत्वादाकाशतडागमध्ये व्यवस्थितंक्रीडास्थानं लघुप्रासादम् ।
-सूर्य. वृत्ति २ (क) परतीथिकों की इन सोलह प्रतिपत्तियों में से केवल एक प्रतिपत्ति सूत्रकार की मान्यतानुसार है, इस विषय में वृत्तिकार
का कथन यह है -"तत्थे इत्यादि-तत्र तेषां षोडषानां परतीथिकानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहु - "समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिःप्रज्ञप्ता इति, एतेन नयेन नेतव्यं, ऐतेनाभिप्रायेणाऽस्मन्मतेऽपि चन्द्र-सूर्यसंस्थितिरवधायेति भावः, तथाहि"इह सर्वेऽपि कालविशेषाःसुषम-सुषमादयो युगमूलाः युगस्य चादौ श्रावणे मासि बहुलपक्षप्रतिपदिप्रातरूदयसमये एकसूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां दिशि वर्तते, तद्वितीयस्त्वपरोत्तरस्यां, चन्द्रमा अपि तत्समये एको दक्षिणापरस्यां दिशि वर्तते, द्वितीय उत्तरपूर्वस्यामत एतेषु युगस्यादौ चन्द्र-सूर्याःसमचतुरस्रसंस्थिति वर्तन्ते, यत्वत्र मण्डलकृतं वैषम्यं यथा सूर्यो सर्वाभ्यन्तरमण्डले वर्तते, चन्द्रमसौ सर्वबाह्य-इति तदल्पमितिकृत्वा न विवक्ष्यते, तदेवं यतःसकलकालविशेषाणां सुषमा-सुषमादिरूपाणामादिभूतस्य युगस्यादौ समचतुरस्रसंथितासूर्य-चन्द्रमसो भवन्ति, ततस्तेषां संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थिानेनोपवर्णिता, अन्यथा वा यथासम्प्रदाय समचतुरस्रसंस्थितिःपरिभावनीयेति नो चेव णं इयरेहि ति-नो चेव नैव इतरैः-शेषेर्नयैश्चन्द्र-सूर्यसंस्थिति
तिव्या, तेषां मिथ्यारूपत्वात्, तदेवमुक्ता चन्द्र-सूर्यसंथितिः । (ख) चन्द. पा. ४ सु. २५ ।
३ चंद. पा. १६, सु. ८७ ।