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________________ २८० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कूट वर्णन सूत्र ४५८-४६० सागरकूडस्स अवट्ठिई पमाणं च- . सागरकूट की अवस्थिति और प्रमाण४५८. ५०-कहि णं भंते ! मालवंते वक्खारपव्वए सागरकूडे ४५८. प्र०-हे भगवन् ! माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत पर सागरकूट णामं कूडे पण्णत्ते? नाम का कूट कहां कहा गया है ? उ०-गोयमा ! कच्छकूडस्स उत्तर-पुरस्थिमे णं, रययकूडस्स उ.-हे गौतम ! कच्छकूट के उत्तर-पूर्व में, रजतकूट के दक्खिणेणं-एत्थ णं सागरकूड णामं कूडे पण्णत्ते। दक्षिण में सागरकूट नामका कूट कहा गया है। पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्ते णं, अवसिट्ठतं चेव। यह पांच सौ योजन का ऊँचा है, शेष सब वही है । सुभोगादेवी; रायहाणी-उत्तर-पुरथिमे ण ।' विशेष-इस कूट पर 'सु भोगा' नाम की दिशाकुमारी रहती है, इसकी राजधानी उत्तर-पूर्व में है। रययकूडे भोगमालिणी देवी, रायहाणी-उत्तर-पुरथिमे रजतकूट पर 'भोगमालिनी' नाम की दिशाकुमारी रहती है। णं । इसकी राजधानी उत्तर-पूर्व में है। अवसिट्टा कूडा उत्तर-दाहिणे ण णेयव्वा, एक्केणं शेष कूट उत्तर-दक्षिण में जानने चाहिए। सभी कूटों का पमाणे णं । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६१ प्रमाण हिमवतत्कूट के समान है.... हरिस्सहकूडस्स अवट्ठिई पमाणं च हरिस्सह कूट की अवस्थिति और प्रमाण४५६. ५०–कहि णं भंते ! मालवंते वक्खारपब्वए हरिस्सहकूड ४५६. प्र०—हे भगवन् ! माल्यवंत वक्षस्कार पर्वत पर हरिस्सह. णामं कूडे पण्णत्ते ? कुट नाम का कूट कहां कहा गया है। उ०—गोयमा ! पुण्णभद्दस्स उत्तरेणं, णोलवंतस्स दक्खिणेणं उ०-हे गौतम ! पूर्णभद्रकूट के उत्तर में नीलवंत वर्षधर -एत्थ णं हरिस्सहकूड णामं कूड पण्णत्ते । पर्वत के दक्षिण में 'हरिस्सहकूट' नाम का कूट कहा गया है । एग जोअणसहस्सं उद्धं उच्चत्ते णं; जमगपमाणेणं यह एक हजार योजन का ऊँचा हैं। इसका प्रमाण यमक णयव्वं । पर्वत के समान जानना चाहिए। मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाई दीव- मंदर पर्वत के उत्तर में तिरछे असंख्यद्वीप-समुद्रों के बाद समुद्दाई वीईवइत्ता अण्णम्मि जंबुद्दीवे दीवे उत्तरेणं अन्य जम्बुद्वीप द्वीप में उत्तर दिशा में बारह हजार योजन जाने बारस जोअणसहस्साइं ओगाहित्ता-एत्थ णं 'हरि- पर 'हरिस्सह' देव की 'हरिस्सह' नाम की राजधानी कही सहस्स देवस्स' 'हरिस्सहा' णाम रायहाणी पण्णत्ता। गई है। चउरासीई जोअणसहस्साई आयाम-विक्खंभेणं । यह चोरासी हजार योजन की लम्बी-चौड़ी है, बे जोयणसयसहस्साई पट्ठि च सहस्साई छच्च छत्तीसे दो लाख पैंसठ हजार छः सौ छत्तीस योजन की इसकी जोयणसए परिक्खेवेणं । परिधि है। सेसं जहा चमरचंचाए रायहाणीए तहा पमाणं भाणि- शेष चमरचंचा राजधानी का जैसा प्रमाण है वैसा कहना यव्वं । -जंबु० वक्ख० ४ सु०६२ चाहिए। हरिस्सहकूडस्स णामहेऊ हरिस्सह कूट के नाम का हेतु४६०.५०-से केणढणं भंते ! एवं बुच्चइ-"हरिस्सहकूड, ४६०. प्र०-हे भगवन् ! हरिस्सहकूट हरिस्सह कूट क्यों कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! हरिस्सहकूड बहवे उप्पलाई पउमाइं हरि- उ०-हे गौतम ! हरिस्सह कूट पर अनेक उत्पल पद्म स्सहकडसमवण्णाई-जाव-हरिस्सहे णामं देवे अ इत्थ हरिस्सहकूट के समान वर्ण वाले हैं-यावत -'हरिस्सह' नाम: महिद्धीए-जाव-परिवसइ। का महर्धिक देव -यावत्-रहता है। १ अत्र सुभोगा नाम्नी दिक्कुमारी देवी, अस्या राजधानी मेरोरुत्तरपूर्वस्यां । २ रजतकूटं षष्ठं पूर्वस्मादुत्तरस्यां, अत्र भोगमालिनी दिक्कुमारी सुरी, अस्या राजधानी उत्तर-पूर्वस्यां । ३ एकेन तुल्य-प्रमाणेन सर्वेषामपि, हिमवत्कूटप्रमाणत्वात् । हरिस्सहकूडे ?"
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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