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________________ १२२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र ३-५ तिरियलोय-खेत्तलोयस्स संठाणं तिर्यकलोक-क्षेत्रलोक का संस्थान३. प० तिरियलोगखेत्तलोए णं भंते ! किंसंठिए पन्नत्ते ? ३. प्र०-हे भगवान् ! तिर्यक्लोक का क्षेत्रलोक किस संस्थान (आकार) का कहा गया है ? उ० गोयमा ! झल्लरिसंठिए पन्नत्ते । उ०-हे गौतम ! झालर के संस्थान का कहा गया है। -भग० सं० ११, उ० १०, सु० ८ तिरियलोय-खेत्तलोयरस आयाम-मज्झं तिर्यक्लोक-क्षेत्रलोक के आयाम का मध्यभाग४. प० कहि णं भंते ! तिरियलोगस्स आयाम-मज्झे पन्नते? ४. प्र०-हे भगवन् ! तिर्यक्लोक के आयाम का मध्यभाग कहाँ कहा गया है ? उ० गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयरस बहुमज्झदेस- उ. हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरु पर्वत के मध्य भाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिम-हेट्ठिल्लेसु भाग में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपरी भाग के नीचे के क्षुद्र प्रतरों खुडगपयरेसु-एत्थ णं तिरियलोगमज्झे अट्टपएसिए रुपए में तिर्यक्लोक का मध्य भाग रूप आठ प्रदेशों का रुचक प्रदेश पन्नत्ते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ पवहंति, तं जहा- कहा गया है जहाँ से ये दस दिशायें निकलती हैं, यथा-पूर्व, पुरत्थिमा, पुरथिमदाहिणा एवं-जहा दसमसते-जाव- पूर्व-दक्षिण-यावत्- इसी प्रकार दशम शतक के अनुसार सभी नामधेज्ज ति। दिशाओं के नाम कहने चाहिए। -भग० स० १३, उ० ३, सु० १५ दीव-समहाणं ठाणं संखा महत्तं संठाणं आगारभाव- द्वीप और समुद्रों के स्थान, महत्ता, संस्थान और प्रकट पडोयारं च आकार५. (१) ५० कहि णं भंते ! दीव-समुद्दा ? ५. (१) प्र०-भगवन् ! द्वीप और समुद्र कहाँ हैं ? (२) प० केवइया णं भंते ! दोव-समुद्दा? (२) प्र०-भगवन् ! द्वीप और समुद्र कितने हैं ? (३) प० के महालया गं भंते ! दीव समुद्दा ? (३) प्र०-भगवन् ! द्वीप और समुद्र कितने बड़े हैं ? (४) प० कि संठिया णं भंते ! दीव-समुद्दा ? (४) प्र०-भगवन् ! द्वीप और समुद्रों के संस्थान कैसे हैं ? (५) प० किमाकारभावपडोयारा ण भंते ! दीव-समुद्दा (५) प्र-भगवन् ! द्वीप और समुद्रों के प्रकट आकार का पण्णता? स्वरूप कैसा कहा गया है ? (१) उ० गोयमा ! अस्सि तिरियलोए जंबुद्दीवाइया दीवा, (१) उ०-गौतम ! जम्बूद्वीपआदि द्वीप और लवणसमुद्र लवणाइया समुद्दा। आदि समुद्र तिर्यक्लोक में है। (२) उ० असंखेज्जा दीव-समुद्दा सयंभुरमणपज्जवसाणा । (२) उ०-(जम्बूद्वीप से लेकर) स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्य द्वीप समुद्र हैं । (३) उ० दुगुणादुगुणे पडुप्पायमाणा पडुप्पायमाणा, पवित्थ- (३) उ०-हे आयुष्मन् श्रमण ! (जम्बूद्वीप से दुगुना लवण रमाणा पवित्थरमाणा, ओभासमाणवीचीया बहु समुद्र और लवणसमुद्र से दुगुना धातकीखण्ड-इस प्रकार उप्पल-पउम-कुमुद-गलिण-सुभग-सोगंधिय-पोंडरीय- स्वयम्भूरमण सपुद्रपर्यन्त) गुणन करते-करते दुगुने विस्तार वाले महापोंडरीय-सतपत्त-सहस्सपत्तपप्फुल्लकेसरोवचिता तथा प्रकाशमान लहरों वाले द्वीप और समुद्र अनेक उत्पल-पद्मपत्तयं-पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं कुमुद-नलिन-सुभग-सौगंधिक-पौंडरीक-महापौंडरीक-शतपत्र-सहस्रवणसंडपरिक्खित्ता पणत्ता समणाउसो। पत्र प्रफुल्लित केशर से सुशोभित हैं । प्रत्येक द्वीप पद्मबर वेदिका से और प्रत्येक पद्मवरवेदिका बनखण्ड से घिरी हुई कही गई है। (४) उ० संठाणतो एकविहविधाणां, वित्थारतो अणेगविध- (४) उ०-सभी द्वीप-समुद्र संस्थान से एक (वृत्त-गोल) विधाणा। प्रकार के हैं और विस्तार से अनेक प्रकार के हैं।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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