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मूत्र ३१५-३१८
तिर्यक् लोक : उत्तरकुरु
गणितानुयोग
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तत्थ णं दो देवा महिड्ढिया-जाव-पलिओवमट्टिइया परि- वहाँ महाऋद्धि वाले–यावत्-पल्योपम की स्थिति वाले वसंति तं जहा-गरुले चैव वेणुदेवे, अणाढिए चेव जंबुद्दीवा- दो देव रहते हैं, यथा-वेणुदेव गरुड़ और अनाडिय । ये दोनों हिवई ।
-ठाण २ उ० ३, सु० ८६ जम्बूद्वीप के अधिपति हैं। उत्तरकुरुस्स अवट्ठिई पमाणं च
उत्तरकूरु की अवस्थिति और प्रमाणादि--- ३१६. ५०–कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे उत्तरकुरा णामं कुरा ३१६. प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष में उत्तर कुरु नामक कुरु पण्णत्ता ?
कहाँ कहा गया है ? उ०—गोयमा मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, णीलवंतस्स वास- उ०-गौतम ! मन्दर पर्वत से उत्तर में, नीलवन्त वर्षधर
हरपव्वयस्स दक्खिणणं, गंधमायणस्स वक्खारपव्वयस्स पर्वत से दक्षिण में, गंधमादन वक्षस्कार पर्वत से पूर्व में और पुरस्थिमेणं, मालवन्तस्स वक्खार परवयस्स पच्चत्थिमेणं, माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम में उत्तर कुरु नामक कुरु एत्थ णं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता ।
कहा गया है। पाईण-पडीणायया, उनीण-दाहिणवित्थिन्ना, अद्धचंद- वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा, रामा संठाणसंठिया, इक्कारस जोअणसहस्साई अटु य बायाले जोअणसए दोणि अ एगृणवीसइभाए जोअणस्स अर्धचन्द्राकार है । वह ११
म वाला है। विखंभेणंति। ३१७. तीसे णं जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया, दुहा वखारपव्वयं ३१७. उसकी जीवा उत्तर में पूर्व-पश्चिम में लम्बी है और दोनों
पुट्ठा, तं जहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं ववखार- ओर से वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है। यथा-पूर्वीय किनारे से पध्वयं पुढा, पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं वक्खार- पूर्वी वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है तथा पश्चिमी किनारे से पध्वयं पुट्ठा, तेवण्णं जोअणसहस्साई आयामेणंति ।' पश्चिमी वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है। उसकी लम्बाई वेपन
हजार योजन है। ३१८. तीसे गं धणु दाहिणणं सढि जोअणसहस्साई चत्तारि अ ३१८. उसका धनुःपृष्ठ दक्षिण में
अट्ठारसे जोअणसए दुवालस य एगूणवीसइभागे जोअणस्स परिक्खेवेणं ।
जंबु० वक्ख० ४, सू०८७ ६०४१८ योजन की परिधि वाला है।
उत्तरकुराए आयारभावो
उत्तरकुरु का आकारभाव (स्वरूप)३१६. ५०-उत्तरकुराए णं भंते ! कुराए केरिसए आयारभाव- ३१६. प्र०-भगवन् ! उत्तरकुरा का आकारभाव (स्वरूप) कैसा पडोयारे पण्णते?
कहा गया है ? उ.-गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते ।
उ०-गौतम ! उसका भूभाग अत्यधिक सम एवं रमणीय
कहा गया है। से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा-जाव.एवं एक्को स्य- चर्ममढेहुए मृदंगवाद्य के चमतल जैसा है-यावत्दीववत्तव्वया-जाव-देवलोग-परिग्गहा णं ते मणुयगणा एकोरुकद्वीप के कथन जैसा है-यावत्-हे आयुष्मन् श्रमण ! पण्णत्ता समणाउसो!
(उत्तरकुरा के) मनुष्य देवलोक में उत्पन्न होने वाले कहे गये हैं। णवरि इमं णाणत्तं छ धणुसहस्त-मूसिता, दोछप्पन्ना यहाँ विशेषता यह है कि वे छह हजार धनुप ऊँचे होते हैं, पिटुकरंडसता, अट्ठमभत्तस्स आहारठे समुप्पज्जति उनके दोसौ छप्पन पांसलियां होती हैं अष्टभक्त (तीन दिन) के तिणि पलिओवमाई देसूणाई पलिओवमस्सासंखि- बाद उन्हें आहार की इच्छा होती है उनका जघन्य आयु कुछ ज्जइमागेण ऊणगाई जहन्नेणं, तिन्निपलिओबमाई कम अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग से कुछ कम तीन
१ सम०५३, सु० । २ जीवा. प०३, उ०२, सु० १४७