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________________ ३२८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : तीर्थ वर्णन सूत्र ६०४-६०५ अहे विज्जुप्पभं वक्खारपव्वयं दारइत्ता, विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत के नीचे से होकर, मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहं वासं दुहा मेरुपर्वत से पश्चिमकी ओर अपरविदेह क्षेत्र को दो भागों में विभयमाणी विभयमाणी, विभक्त करती करती; एगमेगाओ चक्कट्टि विजयाओ अट्ठावीसाए अट्ठावीसाए प्रत्येक चक्रवर्ती विजय की अठाईस-अठाईस हजार नदियों सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी आपूरेमाणी, को अपने में मिलाती मिलाती; पहिं सलिलासयसहस्सेहि दुत्तीसाए अ सलिलासहस्सेहिं (सब मिलाकर) पाँच लाख बत्तीस हजार नदियों से परिपूर्ण समग्गा, (वह शीतोदा नदी), अहे जयंतस्स दारस्स जगई दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लवण- जयन्तद्वार के नीचे होकर पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है। समुद्द समप्पेति,' -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८४ जंबुददीवे एगे बिउत्तरे तित्थसए जम्बूद्वीप में एक सौ दो तीर्थ६०५. ५०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भरहे वासे कति तित्था ६०५. प्र. भगवन् ! जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप के भरतक्षेत्र में पण्णत्ता ? कितने तीर्थ कहे गये हैं ? | उ०—गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता, तं जहा-१. मागहे, उ०-गौतम ! तीन तीर्थ कहे गये हैं यथा-(१) मागध, २. वरदामे, ३. पभासे । (२) वरदाम, (३) प्रभास । १ महाविदेह क्षेत्र के बत्तीस विजयों में प्रवाहित होने वाली बारह अन्तर नदियों में से छह अन्तर नदियां सीता महानदी और छह अन्तर नदियाँ सीतोदा महानदी में मिलती हैं । सीता और सीतोदा नदियाँ लवणसमुद्र में मिलती हैं । २ (क) ठाणं ३, उ० १, सु० १४२ धातकी खण्ड और पुष्करार्ध द्वीप के तीर्थों की गणना उनके वर्णन में देखें । (ख) जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति वक्षस्कार ३, सूत्र ४४-४५ और ४६ में भरत चक्रवर्ती की षट्खण्ड विजय यात्रा के प्रारम्भ में मागध वरदाम और प्रभास-इन तीनों तीर्थों का संक्षिप्त परिचय मिलता है अतः इनसे सम्बन्धित कुछ वाक्य यहाँ उद्धृत किये गये हैं। ....गंगाए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूले णं पुरथिमं दिसं मागहतित्थाभिमुहं पयातं पासइ । -जम्बु० वक्ख० ३, सु० ४४. 'जेणेव मागहतित्थे तेणेव उवागच्छइ' 'मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ' 'मागहतित्थोदगं च गेण्हइ' 'मागहतित्थकुमारं देवं सक्कारेइ' 'मागहतित्थेणं लवणसमुद्दाओ पच्चुत्तरइ' -जम्बु. वक्ख० सु, सु०४५.. तए णं भरहेराया तं दिव्व चक्करयणं, दाहिण-पच्चत्थिम-वरदामतित्थाभिमुहं पयातं चाविपासइ..... ....जेणेव वरदामतित्थे तेणेव उवागच्छई' उवागच्छित्ता वरदामतित्थस्स अदूरसामंते दुवालस जोयणायाम, नवजोयणवित्थिण्णं विजयखंधावार निवेसं करेइ । 'वरदामतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहियाए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए' 'तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं-जाव-उत्तरपच्चत्थिमं दिसिं तहेव-जाव-पच्छिमदिसाभिमुहे पभासतित्थेणं लवणसमुई ओगाहेइ' 'पभासतित्थोदगं च गिण्हई २. त्ता-जाव-पच्चत्थिमेणं पभासतित्थमेराए.... 'तएणं से दिव्वे चक्करयणे पभासतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिधत्ताए समाणीए....। -जम्बु० वक्ख०३, सु० ४६. यह वर्णन केवल भरतक्षेत्र से सम्बन्धित है ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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