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________________ सूत्र १९७-१९८ अधोलोक गणितानुयोग बलिस्स सुहम्मा सभा : बलिचंचा रायहाणी बलि की सुधर्मा सभा तथा बलि चंचा राजधानी १९७:५० कहि णं मंते ! बलिस्स बइरोणिदस्स वइरोयण- १६७ :प्र. हे भगवन् ! वैरोचनराज वरोचनेन्द्र बली की सुधर्मा रनो समा सुहम्मा पन्नत्ता? सभा कहाँ पर कही गई है ? उ० गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेणं उ० हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत से उत्तर तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे वीइवइत्ता, अरुणवरस्स में तिरछे असख्यद्वीप समुद्र लाँघने पर अरुणवर द्वीप की बाहिर दीवस्स बाहिरिल्लातो वेइयंतातो अरुणोदयं समुई की वेदिका से अरुणोदय समुद्र में बयालीस हजार योजन अवगाहन बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता-एत्थ णं करने पर वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि का रुचकेन्द्र नामक उत्पात बलिस्स वइरोणिदस्स बइरोयणरन्नो रुगिदे नाम पर्वत कहा गया है। वह सतरहसौ इक्कीस योजन ऊंचा है, शेष उप्पायपव्वए पन्नत्ते', सत्तरसएक्कवीसे जोयणसए प्रमाण तिगिच्छ कूट उत्पात पर्वत के समान है। प्रासादाउड्ढं उच्चत्तेणं', एवं पमाणं तिगिछकूडस्स, वतंसक का प्रमाण भी वही है । बलि का सिंहासन और पासायवडेंसगस्स त चेव पमाणं, सीहासणं उसके परिवार के सिंहासनों का वर्णन तथा रुचकेन्द्र नाम सपरिवारं बलिस्स परियारेणं । अट्टो तहेव। का अर्थ भी उसी प्रकार है। नवरं-रुगिदप्पभाई कुमुयाइ। विशेष यह है कि रुचकेन्द्र रत्न की प्रभावाले उत्प लादि है। सेसं तं चेव जाव बलिचंचाए रायहाणीए शेष सभी उसी प्रकार है यावत् बलिचंचा राजधानी अन्न सि च जाव निच्चे। और अन्यों का (आधिपत्य करता हुआ) यावत् नित्य है। रुयगिदस्स णं उप्पाय पव्वयस्स उत्तरेणं छक्को- रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत के उत्तर में उसी प्रकार यावत् डिसए तहेव जाव चत्तालीसं जोयणसहस्साइं (पचपन करोड़; छहसौ पैंतीसलाख पचासहजार योजन ओगाहित्ता-एत्थ णं बलिस्स वइरोणिदस्स अरुणोदय समुद्र में तिरछा जाने पर नीचे रत्नप्रभा का) वइरोयणरन्नो बलिचंचा नामं रायहाणी चालीसहजार योजन भाग अवगाहन करने पर वैरोचनराज पन्नत्ता। एगं जोयणसयसहस्सं पमाणं तहेव, वैरोचनेन्द्र बलिकी बलिचंचा नाम की राजधानी कही गई जाव बलिपेढस्स उववातो जाव आयरक्खा सव्वं है। इसका आयाम विष्कम्भ एक लाख योजन का है। शेष तहेव निरवसेसं । प्रमाण यावत् बलि पीठ तक कहना चाहिए । उपपात यावत् आत्मरक्षक आदि का सम्पूर्ण वर्णन पहले के समान है। नवर–सातिरेगं सागरोवमं ठितो पन्नत्ता। विशेष-कुछ अधिक एक सागरोपम की स्थिति कही सेसं तं चेव जाव बली बहरोयणिदे, बली गई है। शेष उसी प्रकार है, यावत् बलि वैरोचनेन्द्र ! बलि वइरोंयणिदे। वैरोचनेन्द्र ! सेवं भंते, सेवं भंते जाव विहरति । हे भगवन् ! हे भगवन् ! इसी प्रकार है। इसी प्रकार -भग० स० १६, उ० ६, सु० १। यावत् विचरण करते हैं । पंच सभाओ पाँच सभा१९८ : चमरचंचाए रायहाणीए पंच सभाओ पण्णत्ताओ तं जहा- १९८ : चमर चंचा राजधानी में पाँच सभायें कही गई हैं, यथा१. सुहम्मा सभा, २ उववाय सभा, १. सुधर्मा सभा। २. उपपात सभा। ३. अभिसेय सभा, ४. अलंकारिय सभा, ३. अभिषेक सभा। ४. अलंकारिक सभा । ५. बवसाय सभा। ५. व्यवसाय सभा । एगमेगे णं इंबट्ठाणे गं पंच सभाओ पण्णत्ताओ, प्रत्येक इन्द्र के स्थान में पांच सभायें कही गई हैं, यथातं जहा-सुहम्मा सभा जाव ववसायसभा । सुधर्मा सभा यावत् व्यवसाय सभा । -ठाणं० ५, उ० ३, सु० ४७२ । १. ठाणं० १०, सु० ७२८ । २. सम० १७, सु०८।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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