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________________ १८ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १९६ तिसेणं चमरचंचाए रायहाणीए दाहिणपच्चत्थिमेणं उस चमर चंचा राजधानी के दक्षिण पश्चिम में छह सौ छक्कोडीसए पणपन्नच कोडीओ पणतीसं च सयसहस्साइं पचपन क्रोड पेंतीसलाख पचासहजार योजन अरुणोदक समुद्र में पन्नासं च जोयणसहस्साइं अरुणोदगसमुदं तिरियं वोई. तिरछे जाने पर असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर का चमरचंच बहत्ता एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो नाम का आवास कहा गया है। चमर चंचे नामं आवासे पण्णत्ते । चउरासीइं जोयणसहस्साई आयाम-विक्खंभेणं, वो जोयण- (उसका) आयाम-विष्कम्भ चौरासीहजार योजन का है (और सयसहस्सा पट्टि च सहस्साई छच्च बत्तीसे उसकी) परिधि दो लाख पैंसठ हजार छह सौ बत्तीस योजन से जोयणसए किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं । से गं एगेणं कुछ अधिक है। वह एक प्राकार द्वारा चारों ओर से घिरा पागारेणं सम्वओ समंता संपरिक्खित्ते, से णं हुआ है। प्राकार डेडसौ योजन ऊपर की ओर उन्नत है, पागारे दिवढं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं', मूले पण्णासं (प्राकार के) मूल का विष्फंभ पचास योजन है और ऊपर का जोयणाई विक्खंभेणं, उरि अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं विष्कभ साड़े बारह योजन है। (प्राकार के) कंगूरे आधा योजन कविसीसगा अद्धजोयणआयाम, कोसं विक्खंभेणं, अद्ध- लम्बे हैं, एक कोस चौड़े हैं और आधा योजन ऊपर की ओर उन्नत जोयणं उढं उच्चत्तेणं, एगमेगाए बाहाए पंच-पंच दार- है। उसकी प्रत्येक बाहु में पांच-पाँचसौ द्वार हैं। प्रत्येक द्वार सया, अड्ढाइज्जाई जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, अद्धं ढाईसौ योजन ऊपर की ओर उन्नत है और (ढाईसौ योजन के) विक्खंभेणं । आधे अर्थात् सवासौ योजन उनका विष्कंभ है। प० चमरे णं भंते ! असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचे प्र० हे भगवन् ! असुरकुमारों का राजा असुरेन्द्र क्या चमर आवासे वसहि उवेइ? चंच आवास में (स्थायी) निवास करता है ? उ० गोयमा ! नो इण? सम?। उ० गौतम ! ऐसा नहीं है। प० से के णं खाइ अट्ठ णं भंते ! एव वुच्चइ - 'चमर प्र. हे भगवन् ! किस अभिप्राय से यह कहा जाता है किचंचे आवासे, चमरचंचे आवासे? "यह चमर चंच आवास हैं, यह चमर चंच आवास है ? उ० गोयमा ! से जहा नामए-इहं मणुस्सलोगंसि उ. हे गौतम ! जिस प्रकार इस मनुष्य लोक में उपकारिक उवगारियालेणाइवा, उज्जाणियलेणाइ वा, निज्जा- (प्रासाद की पीठिका रूप) लयनादि, उद्यानिक (बगीचे में बने हुए) णियलेणाइ वा, धारवारियलेणाइ वा, तत्थ णं बहवे लयनादि, निर्याणिक (नगर द्वार के बाहर बने हुए) लयनादि तथा मणस्सा य, मणुस्सीओ य, आसयंति सयंति जहा धारकरिक (पानी की धाराएँ छोड़ने वाले) लयनादि (गृहादि) होते रायपसेणइज्जे जाव कल्लाणफलवित्तिविसेसं हैं-वहाँ अनेक मनुष्य और मानुषियाँ बैठते हैं, सोते हैं रायपसेणी पच्चणुभवमाणा विहरति । अन्नत्य पुण वसहि में आये वर्णन के समान यावत् विशेष पुण्य के फल का अनुभव उति। करते हुए रहते हैं और वे अन्यत्र (स्थायी) निवास करते हैं । एवामेव गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमार- इसी प्रकार हे गौतम ! असुरकुमारों के राजा असुरेन्द्र चमर रण्णो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डारतिपत्तियं, का चमर चंच आवास केवल (उसकी) क्रीडारति के लिए है और अन्नत्थ पुण वसहि उवेइ। वह अन्यत्र (स्थायी) निवास करता है। से तेण? गं गोयमा ! एवं वुच्चह चमरचंचे आवासे'। इसीलिए हे गौतम ! यह चमर चंच आवास कहा जाता है । - भग० स० १३, उ० ६, सु० ५, ६। यहाँ संक्षिप्त वाचना की सूचना इस प्रकार हैं :-"एवं चमरचंचा रायहाणी वत्तव्वया माणियव्वा सभा विहूणा जाव चत्तारि पासायपतीओं" इस सूचना के अनुसार यहाँ चमरचंचा आवास के प्राकार आदि का परिमाण भग० पृ० ११२ के टिप्पण से दिया है। म० वि० वियाहपण्णत्ति भाग २ श० १३, उ० ६, सू० ५, पृ०६४० पर संक्षिप्त वाचना की सूचना इस प्रकार है :'नवरं इमं नाणत्तं जाव तिगिच्छिकूडस्स उप्पायपव्वयस्स, चमर चंचाए रायहाणीए चमरचंचस्स आवासपब्वयस्स अन्ने सि च बहूणं-इस सूचना के अनुसार पण्ण० प० २, सु० १७८ [२] से यहाँ यह पाठ संकलित किया है। से णं तत्थ तिगिच्छिकूडस्स उप्पायपव्वयस्स, चमरचचाए रायहाणीए, चमरचंचस्स आवासपव्वयस्स, अन्न सिं च बहूण दाहिणिल्लाण देवाण देवीणं य आहेवच्च पोरेवच्चं जाव विहरइ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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